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प्रो० भगवती प्रसाद पान्थरी की नई कृति अशोकः मेने देखी | मुझे यह लिखते हुए हे होता है कि पान्थरी जी को जेसा जागरूक अध्ययन करने वाला एवं परिश्रमी मेंने उनके विद्यार्थी काल में पाया था, वेसे ही नहीं, किन्तु उससे भी बहुत अधिक परिश्रमी वे अब भी हैं। इतिहास में गिने-चुने हुए नव- युवकों ने इतना उत्तम काम किया होगा। सम्राट अशोक के जीवन पर उन्होंने बड़ा उत्तम अन्थ लिखा है और इस प्रकार केवल हिन्दी साहित्य की ही सेवा नहीं की है किन्तु हमारे देश के सर्वोच्च, सबसे महान और आदश सम्राद के जीवन तथा म तत्कालीन भारतीय समाज का बड़ा यथाथ ज्ञान पाठकों के लिये हस्तामलकव॒त् कर दिया है। इस पुस्तक का प्रकाशन जितना शीघ्र हो उतना ही शुभ होगा |
परमात्माशरण, एस० ए०
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सम्राट् अशोक के प्रति मेरा विशेष आकर्षण रहा है। मैं यह मानता हूँ ओर बड़े विश्वास -के साथ कि महान् पुरुषों के जीवन का अध्ययन मनुष्य को महान् बनाने में बहुत सहायक होता है। अशोक उन्हीं मह्यान् पुरुषों में से एक हैं। आ्राज का संसार हिंसा के मेघों और प्रतिहिंसा की बिजलियों से आक्रांत है। शांति ओर स्नेह मानव- समाज से हटता जा रहा है, ओर यदि उनका हटना रोका न गया तो विनाश को भी कोई नहीं रोक सकता |
गांधीजी आज इस बढ़ते हुए विनाश को रोकने में संलग्न हैं । वे सत्य, स्नेह ओर अहिंसा की भित्ति पर मानव की नींव खड़ी करना चाहते हैं | वे खूब समभते हैं कि हिंसा का परिणाम हिंसा होती है, हिंसा से हिंसा बढ़ती है, रुकती नहीं । एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से दबाया जाना अथवा एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा आक्रांत किया जाना वे अनाचार ओर हिंसामूलक मानते हैं। किन्तु वे नहीं चाहते कि आक्रान्त और उत्पीड़ित मनुष्य उन्हीं हिंसात्मक साधनों का सहारा लेकर आक्रान्तकारी वा उत्पीड़िक को ख़त्म कर । वे सच्च ओर शुद्ध उद्द श्य की प्राप्ति के लिये सच्चे श्र शुद्ध साधनों का प्रयोग ही काम में लाने का सन्देश देते हैं। मनुष्य की उस परम्परागत बूढ़ी मनोद्धत्ति, जिसके अनुसार अच्छे उददं श्य के लिए. ख़राब उपाय भी श्रेयस्कर बतलाये गये हैं, का वे आज वर्षों से विरोध कर रहे हैं, ओर हमें आशा है यदि यह मनोदृत्ति बदल गई तो सचमुच मनुष्य का
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हृदय भी बदल जायेगा और हिंसात्मक समाज की प्रतिहिंसात्मक
प्रवृत्ति भी |
क्या यह सम्भव है? क्या इतिहास में कभी ऐसा हुश्रा भी है! इसी के प्रमाण में 'अशोक' की जीवनी उपस्थित को गई है। मेरा पका विश्वास है कि मनुष्य के हृदय में यदि ज़रा भी स्वाभाविक स्नेह अपने मानव भाइयों और जीवों के प्रति वर्तमान है, तो निश्चय ही हिंसा की क्ररताओं की विभीषिका उसे उसके क्रूर मार्ग से हटा कर प्रेम-पथ पर ला सकतो है । क्या 'कलिंग! की क्रर विभीषिका ओर मानव-वेदना की करुण चित्कार ने अशोक के हृदय को बदल न दिया था १ उस हृदय-परिवर्तन के बाद ही तो अशोक ने हिंसात्मक युद्धों को तिलांजलि देकर धर्म-विजय द्वारा हृदय को विजय करने का सत्कर्म उठाया था, जिसमें वे काफी सफल भी हुए थे |
यदि अशोक जेसे साम्राज्यशाही का हृदय परिवर्तित हो सकता है, ओर यदि भारत का श्राज हजारों वर्ष पहले का बूढ़ा चक्रवर्ती अपने कार्यों द्वारा यद्द साबित करने में सफल हो सका कि सारी राज्य-व्यवस्था प्रेम और अहिंसा के निर्मल एवं निःस्वार्थ आदर्शों पर संचालित हो सकती है, तो क्या आज के समाज के नेता और अधि- पति, जो आज सभ्यता और संस्कृति में अपने को उस पुराने ओर इद्ध जमाने से बहुत आगे समझते हैं, प्रेम और अहिंसा के सुन्दर और सद्प्रयर्नों को अपने हाथों में नहीं ले सकते ? अशोक की जीवनी को पेश करते हुए हमें विश्वास है कि अशोक स्वयं उन्हें अपने कर्मों द्वारा यह समझा सकने में समथ हो सकेंगे कि सच्चाई, ईमानदारी, तथा अहिंसा के स्नेहिक सिद्धांतों पेर भो राज्य-व्यवस्था औंर राजसत्ता एवं अन्तर्राष्ट्रीय मेत्रियाँ कायम हो सकती हैं; और संसार को हिंसा के भय से मुक्त किया जा सकता है |
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इस पर अधिक न लिख कर अन्त में में अपने प्रोफेसर श्री डी० सी० गांगोली, श्री डा० परमात्माशरण और मित्र श्री कृष्ण, एम० ए०, श्री रघुवीरप्रसाद पैन्यूली, बो० ए०, ओर श्री आचार्य गोपेश्वर का इ बहुत आभारी हूँ जिन्होंने कई प्रकार से मुझे इस पुस्तक की रचना में उत्साह श्रोर सहयोग दिया ।
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. पुस्तक की अच्छाई ओर गुणों के बारे में में स्वयं कुछ नहीं कह ४... सकतां, पाठकंगण उसका निर्णय कर सकते हैं। हाँ, प्र की इधर उधर कतिपय भूलें हो गई होंगी, इसके लिये स्नेही पाठकों से ऋ्षमा चाहता हूँ, ओर आशा करता हूँ, यदि देशवासियों के सहयोग से उसका जल्दी हो दूसरा संस्करण निकल सका तो उसमें वे अशुद्धियाँ पूरी तरह से इटा ली जायेगी । |
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३ द् हि पक के पक हु ५ भ० प्र० पांधरी १४-बी, क्रास रीड, देहरादून |
5 क् , द पृष्ठ १-अशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार... १ २--साम्राज्य की सीमाएँ और विस्तार ... 5-6 ३--अशोक की शासन-व्यवस्था क् न “"«.. इई६ ४--सम्राट का धर्म-परिवतेन और बौद्ध होना ..... १०७ ४-वोद्धअशोक.. ... बल ... ?४७४ )६-बौद्ध-थर्म के प्रचारक अशोक्क..... .«.. ८६ की, ् के खड. ७--सम्राट अशोक-कालीन भारत को सामाजिक और द धार्मिक स्थिति बी ... २४७ ८-अशोक-कालीन कला और वास्तु-निर्माण कौशल ह तथा कृतियाँ का ० २७६ ०“ ६--अशोक का इतिहास में स्थान .... ४» ३: डरे >££--सम्राद अशोक रे ५७ 38
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अशोक का प्रारम्मिके जोवन और परिवार : परिवर्तेनशील संसार न जाने अब तक. कितनी करवट बदल
चुका है। भारतीय इतिहास के पन्ने इन्हीं परिवर्तनों की गाथाओं से आसंकुल हैं। वस्तुतः इमारा इतिहास असंख्य उलठ-फेरों का एक विचित्र आख्यान है। किन्तु फिर भी इस इतिहास की निजी महत्ता है | वह हमारी बीती स्मृतियों का भांडार है।./
इस इतिहास के द्वार से ही प्रवेश कर हम अपने अतीत से मौन संल्ञाप कर सकते हैं। आज यह वही इतिहांस है जो चंद्रगुप्त और सिकंदर, बिन्दुसार और अशोक से हमारा सान्निध्य कराने का साधन बना है। दो हज़ार वष से भी बूढ़ा अशोक आज इतिहास ही के कारण हमें “तरुण” प्रतीत होता है श्लौर कठोर पाषाणों पर घनीभूत उनके हृदय के उद्गार आज भी नवीनतम हैं, आज भी उन विमल शब्दों की रागिनी युगों के अंतराल को भेदती हुई हमें स्पष्ट सुनाई पड़ती है, और आज भी.वे मिक्ठु सम्राद अशोक, हमें अपनी घर्म- लिप्रियों को बाँचते हुए समीप ही अनुभूत होते हैं।..
अशोक का वंश--जिस : प्राल्भ मौय्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने, नन््द- वंशीय राजाओं से चिढ़ कर, चाणक्य की सहायता ल्े,.उन्हें समूल उखाड़ फेंका था; जिसने आततायी यंवनों पर अपनी वीरता का सिक्का जमाया--उन्हीं सिल्यूकस नेकेटर के विजेता औरं दामाद--यूनानी लेखकों के सैन्डाकोट्स ( 357970६०॥०७४ ) और एन््ड्राकोट्स -
“ए का डजी ५ सनम णपकन मथ 2 का... २अ.3 सन ० ८५ 3: 5
अं 22 मम मम]
र् अशोक
( 3.0व7०£0/08 ) का नाती धर्म-विजयी ( १३वाँ शिलालेख ) अशोक हुआ! | अशोक के पिता का नाम बिन्दुसार था, जिसे स्ट्रेवी (373/20) अलीट्रोकेड्स के नाम से संबोधित करता है--- (0|7906#[ [एव पप5807 09 88597067, 0. 383,)/0 (:४४४0]8) दूसरा ग्रीक लेखक विन्दुसार के लिये अमित्रोकेट्स ( 0777009०७88 ) लिखता हे। अमित्रोकेट्स का संस्कृत रूप “अ्रमित्रहता” अर्थात् शत्रुओं का संहारक है| इसी विन्दुसार के प्रति यूनानी लेखक लिखते हैं--“हिंगसैन्ड् कहता हे--सूखे अंजीर सब को इतने भले लगते थे कि भारतीय सम्राट अमित्रोकेट्स ने, अन्णीओंक्स को लिखा कि “मीठी मदिरा, सूखे अंजीर और एक तार्किक (5070ां») ख़रीद कर सेत्र देव | इस पर, अ्रन्टीओ्रोकत ने लिख भेजा कि “मीठी मदिरा ओर सूखे अंजीर भेजने में हमें हप है, किन्तु, यूनान में तार्किकों को बचना न्यायसंगत नहीं माना.जाता [? (62670 वात 57० [0ए48707 075]6545७8087, 95ठ8 409, /८६९४०७४००१३)।७) इसी सम्राद विन्दुसार के वाद दी अशोक सिंहासनारूढ़ हुआ |
इतिहास की उत्लकन--कीर्ति और यश की पक्षुपातिता की
आलोचना करते हुए, स्लानव-जाति हमेशा से श्रद्धालु रही है। समय
१सिकन्दर की सुत्यु के पश्चात् यूनानी शासकों का निधन कर, सैन्ड्राकोट्स ने भारत को स्॒तंन्त्रता प्रदान की । किन्तु विजय करने के अनन्तर उसने स््रतंत्रता को पुन: गुलामी की जंजीरों से जकड़ दिया । क्योंकि वह, उन्हीं लोगों के साथ, जिन्हें उत्त ( सैन्द्राकोटस ) ने स्वतन्त्र किया था, ऋरता तथ दासलत्व का व्यवहार करने लगा । ......सैन्द्राकोट्स भारत पर उस समय शासन करता था, जब सिल्यूबस अपने भावी उत्कर्प के निर्माण में संज्ञप् था। सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त (सैन्द्राकोटस) के साथ सन्धि कर ली.. .(३०२ ३० पू०) जस्टिनस् (उंए४४70७) 0707676 [श7त9 >2ए +४(628860067686 800 ४7870, +/0(7४70|6; 79806 7. ै *
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श्रशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार ३
को प्राचीनवा एवं दूरता से पुष्कल हुए, ये ऐतिहासिक महान् व्यक्ति अपने चारों ओर अ्राख्यानों की एक ऊँची मौनार खड़ी कर देते हे जिसे लॉघ कर उन तक पहुँचने में बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ता हे | री द
.. कभी-कभी इन ऐतिहासिक महान् पुरुषों ने, मानव-जाति को् भ्रमित करनेवाली अपनी उस शक्ति से परिचित द्वोकर, संसार की श्रद्धालुता से अपनी गाथाओं को रचाने के : प्रति, मंत्रणा-ची प्रतीत द्वोती है। हम कह सुकते हैं कि “कल्हण”? के साथ सम्राट ने भी ऐसी ही मंत्रणा की | कल्दण लिखता है कि इन्द्रियनीत' यशस्पी सम्राट अ्रशोक, शकुनी का पौत्र था! || अपितु भ्रमित करनेवाली एवं इतिहास को उलझानेवालो कई गाथायें अशोक के प्रति हमें महे|वंश, दिव्यावदान, दीपवंश, अशोकावदान आदि में मिलती हैं। यद्यपि ये गाथायें इतिहास को बहुधा उलझन में डालती हैं, किन्तु कहीं-कहीं पर सहयोग भी अवश्य प्रदान करती. हैं। “इन महावंश आदि लोक- गाथाओं का कारण बोद्ध लेखकों की श्रद्धालुता थी |
हद
अशोक का सिंहासनारोहए--अशोक के चारों ओर लोक- कथाओं एवं गाथाओं की जो कंटीली झाड़ियाँ उग चली हैं, वे एक ऐतिहासिक को उलझाये बिना नहीं रहती | ल्ञोकगाथाओं और कल्पित आख्यानों की ये भाड़ियाँ विशेषतः सिलोन ( ताम्रयर्णीं ) की गरम जलवायु में खूब उगी और पनपी हैं| किन्त इतिहासज्ञों का सौभाग्य ह कि अशोक ने शिलामिलेखों ओर स्तंम-लेखों की स्थापना कर अपने तक पहुँचने का सीधे ओर सरल मार्ग का निदंश किया है । अतः किम्बंदन्तियों की उलझन अत्यधिक व्यग्रता का कारण नहीं रह पाई है। पाषाणों पर लोह-क़ल्मम से अमिलिखित श्रशोक के लेख, जौब ([०७) के निम्न वाक््यों--..]/ए ए०/ठ85 ए्०७७७ फ्राप।७7 ! (वा |
१(राजतरंगिणी, प्रथम भाग--१०१-१०२)
ऑन्न्की- हैँ फल तन
४ . अशोक . .. -
706ए ७78 वा/ए७7 जछरत 47070 96७70 वशते ]68 # [/6 70८: 4007 ७ए७७ [“---को पूर्ति. करते - हुए, इतिहासज्ञों के मार्ग-दशंक बन, आज भी युगों की भयंकरता क । सामना करते हुए अटल रूप में अवस्थित हैं। सा इनके |अ्रतिरिक्त बहुत-सी बौद्ध-गाथायें अशोक के विषय में प्रचलित हैं, जो उनके प्रारम्भिक जीवन आदि पर अवश्य प्रकाश डालती हैं, किन्तु बहुतांश में उनकी विश्वस्ता संदेहात्मक है। बौद्ध- गायायें सम्राद् अशोक को बौद्ध-धर्म ग्रहण करने के अभ्यन्तर कालाशोक ओर चारण्डाशोक के नाम से पुकारती हैं | किन्तु बौद्ध-घर्म अहण करने पर ये गायायें उन्हें (अशोक) धर्माशोक कह कर सम्मानित करती हैं। परंतु यहाँ पर उनकी सत्यशीलता उपेक्षणीय है; मालूम होता है कि बे अध्रिकतर बोद्ध-धर्म की महत्ता प्रदर्शित करने के लिये दी रची गई थी | उन्हें लोगों को यह जतलाना था कि बौद्ध-धर्म कालाशोक को भी धर्माशोक में परिवर्तित कर सकता है | !| .. किन्तु अशोक की निज आज्ञाओं और अनुशासनों से प्रेषित हुए शिलाभिलेखों और धर्म-स्तंभ-लेखों की सत्यता अ्रप्रश्नात्मक है। अपित जब हम अशोक की धम्म-लिपियों को पढ़ते हैं, तो ज्ञात होता है कि अशोक की वह पावन वाणी हमसे बातें कर रही हैं, तथा हमें उनके हृदय के अभ्यन्तरी कोण में उठते हुए भावों की अनुभूति-सी होने लगती है। निःसंदेह. अशोक के इतिहास का सी धा, सच्चा और सरल मार्ग उनके लेख हैं । यद्यपि कह्दीं-कहीं पर हम गाथाओं की सत्य- शीलता की भी उपेक्षा नहीं कर सकते | किन्तु जब ये लोकं-गाथायें ही परस्पर सहमत नहीं होतीं तो हमें भी उनके प्रति सन्देह हो आता है! | लोक-गाथाओं के आपस की यह फूट उनकी नपम्नता की परि- चायक हे।.... क् के 8 अप शी | अशोक के सिंहासनारोहण पर महाबंश लिखता है--.“ब्राह्मण चाणक्य ने धननन्द को मार कर चन्द्रगुत को सारे जम्बूदीप का
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अशोक का प्रारम्मिक जीवन और परिवार प्
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राजा बनाया | यह चन्द्रगुप्त मोब्य-वंश का एक प्रतिभाशाली पुरुष था | इसने ३४ वष तक राज्य किया। उसके पुत्र बिन्दुसार ने र८ व तक शासन किया । पिन्दठुसार को सोलह रानिर्याँ थीं | इन सोलह रानियां से उसके १०१ पुत्र हुए। इनमें से अशोक अपनी प्रतिभा ओर ज्ञान द्वारा सब-शक्तिशाली हुआ। अ्रशोक ने अपने १०० भाइयों को मार डाला, और जम्बूदीप का एकछत्र अधिपति बून // बैठा" |” । ध. ह
आगे चल कर महावंश अशोक के राज्यारोहणु का इस प्रकार वरणन देता हे--“श्रशोक अपने पिता द्वारा उज्जेन का शासक निवाचित हुआ था | अ्रतः अशोक उज्जेन में रह्दा करता थां | किन्तु जब उसने सुना कि बिन्दुसार अन्तिम मृत्यु-शय्या पर है, तो वह उज्जन को छोड़ कर पुप्पहपुर ( पाठलिपुत्र ) को चल दिया। वहाँ पहुँच कर अपने पिता के मरते ही उसने श्रपने बड़े भाई सुमन । मार डाला औरं इस प्रकार संपूर्ण रांज्य का अधिपति बन बैठार |?”
इस प्रकार सिंहल-गाथायें, जेसा कि महावंश और दीपवंश में वर्णित हैं, बिन्दुसार की सोलह रानियाँ और १०१ पुत्रों का उल्लेख देते हैं। इन १०१ पुत्रों में से केवल तीन के.नाम दिये गये ईं-सुमन (उत्तरी गाथाओं के अनुप्तार सुशीम) ज्येष्ठ भाई, अशोक और तिष्य (अशोक का सहोदर भाई)। उत्तरी गाया के अनुतार जेता कि अशोका- वदानमाला म॑ उल्लिखत है अशोक की माता का नाम शुभद्वांगी था। शुभद्रांगी “चम्पा” के एक ब्राह्मण की सुन्दरी कन्या थी | इस शुभद्वांगी का बिन्दुत्तार से. “वितासोक” नाम का एक और पुत्र भी हुआ कहा जाता है | (इस वितासोक को विंहली गायायें तिस्थ लिखती हैं। |... किन्तु दक्षिणी रूढ़ि के अनुसार अशोक की माँ. “घर्मा? थी ! धर्मा
महावंश प्रकरण पाँचवाँ । रठ8ा-एपनत, । ए०0पघा००७, 9ए 309] बंद सतिका प्र० ४, १० १२५० -
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द् । .... अशोक
भगम्मुख रानी (अग्रमहीषी) थी | धर्मा क्षत्रिय मौय्य-वंश की थी, इनके वश का आझराचाय एक आजीविक साधु “जनसेन” था| इस पर विचार करते हुए, श्री राधाकुम॒द म॒ुकुर्जी कहते हैं कि यही कारण है कि अशोक आजीकविकों के प्रति उदार रहे | किंतु यह कथन ठीक नहीं प्रतीत होता क्योंकि अगले प्रंकरणों से सबंथा स्पष्ट हो जायगा कि अशोक की उदारता का कारण पक्षपात न था परंतु सब धर्मों (संप्रदायों या पासर्डा) की पूजा करना ही उनका स्वीकृत मत था---(सव पासंडा पि में पुजिता-- स्तंभ-लेख इवाँ )| अ्रतः उनके हृदय की विशालता ही उनकी सावलौकिक, उदारता और प्रेम का कारण था |
अतः महावंश राज्यारोहण के इस युद्ध को अशोक और ६८ भाइयों के मध्य हुआ कहता है, किन्तु दिव्यावदान में यह युद्ध केवल
अशोक और सुशीम अथवा सुमन के मध्य दिखलाया गया है।
दिव्यावदान की कथा इस प्रकार है---“चम्पा नगर के एक ब्राह्मण को बड़ी रूपवती कन्या थी | इस लड़की को देख कर भविष्यवक्ताश्रों ने घोषणा की कि वह. रानी होगी | तथा उसके दो पुत्र होंगे, जिनमें से एक चक्रवर्ती सम्राट होगा और दसरा सन्यासी बनेगा | जब लड़की के पिता ब्राह्मण को यह माल्यूम हुआ तो वह पाटलिपुत्र चला आया। पाटलिपुत्न में उसकी कन्या अन्त पुर की रानियों की मंत्रणा से राजप्रासाद में नाईन का काम करने लगी.| एक दिन भेद खुल गया और राजा ने उस ब्राह्मण-पुत्री को पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया | इसी ब्राह्मण-कन्या शुभद्वांगी से अशोक का जन्म हुआ | किन्तु अपने इस पुत्र पर राजा बिंहुसार का स्नेह न था| एक दिवस विन्दुत्तार ने आजीविक साधु पिंगलावत्साजीव से राजकुमारों को परीक्षा लेने को कंद्दा | सब राजकुमारों को एकत्रित कर राजा ने साघु से प्रश्न किया, “परित्राजक, कहो इनमें से कौन मेरे अनन्तर सम्राट होगा ?? आजिविक साधु भली भांति जानते थे कि सब में से अशोक ही सर्व-शक्तिमान है, अतः वही सम्राद होगा ।
34000 अं: इक. १३ ०३ कक ३-६7 लि पलल ०067५ जम रीप कक का करत 5 मत हर हि कै 7:72 208०
जज हे जी जन्म १४ ् 00060 अब 5 0 जम जी 5 न (०.००. नचछ
अशाक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार ७
किंतु राजा का उस पर स्नेह न जान कर वह इस बात को व्यक्त नहीं करना चाहता था। अतः उसने नाम न ले कर संकेतों से बताना आरंभ किया | किन्तु पीछे जब अशोक की माँ ने साधु से पूछा कि “परिब्राजक, कौन सम्राद् होगा १? तो साधु बोला--“अशोक ।” अतः स्पष्ट है कि दिव्यावदान का यह उल्लेख अशोक को योग्य उत्तराधि- कारी प्रमाणित करता है | इसके अतिरिक्त दिव्यावदान की कथा से हमें यह भी मालूम होता है कि अशोक के पृष्ठ पर संपूण मंत्री- मंडल का आलम्ब था। कथा लिखती है, “एक दिवस - बिन्दुसार का ज्येष्ठ पुत्र सुशीम खेल रहा था कि प्रधान मंत्री खललाहक भी उधर से जा निकला | सुशीम ने खेल्ल में, मंत्री के मस्तक पर खटका गिरा दिया। इस पर प्रधान मंत्री चिढ़ कर सोचने लगा कि आज तो इसने खटका गिराया है, किंतु जिस दिन राजा होगा उस दिन तो यह शस्त्र ही फेंकने लगेगा। अतः इसका राजा होना उचित नहीं है । यह सोच कर उसने मंत्रणा की और पाँच सौ मंत्रियों को उसके प्रति भड़का दिया |! इसी दिव्या- वदान के अनुसार अशोक एक समय तक्षशिला के राजविद्रोह् को शान्त करने के लिये भेजा गया था। इसके पश्चात् तक्कशिल्ला में. दूसरी बार विद्रोह हुआ, सुशीम इस विद्रोह को शान्त करने के लिये तन्कशिला में गया छुआ था कि बिन्दुसार की मृत्यु हो गई और सिंहासन खाली हो चला | इसी समय सहसा अशोक राधागुप्त की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर ब्रेठा। सिंहासन छीने जाने पर सुशीम ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण करना चाहा किंतु अशोक के मंत्री राधागुप्त ने धोखे से सुशीम को जलते हुए अंगारों के खडड में गिरा कर शान्ति से मरवा डाला |"
अतः सुप्रकाशित है कि ये गाथायें आपस में ही उलझन रही हैं। दक्षिणी गाथायें अशोक को श्रावृघातक प्रमाणित करने के पक्ष में हैं।
दिव्यावदान, प्रकरण र२द्ववाँ ।
अन+जक०-म कक व मर, ०ने- उमन+क, अनमना पकरन:0+क २०७०० का७+॥ ०७
च हे :... अशोक
बिदित होता है कि इन कथा-वस्तुओं का ध्येय ब्राह्मण-घर्मी चाणएडा2 शोक ओर बोद्धधर्मी धर्माशोक के मध्य अन्तर दिखलाना था। इसी हेतु बोद्ध-धम ग्रहण करने से पूव अशोक को एक “नरक” का निर्माणंकर्ता भी कह्द जाता है। इसे नरकागार में कई निरपराघ व्यक्ति, विभिन्न यातनाश्रों द्वारा पीड़ित किये जाते थे ((-]38 उिपते- ठता४ईस्|ंट हिंएठव०078, 56-58, . ४87976४) 4 सी-यू-की (5-एप-८, 9. 85) लिखता है, “पाठलिपुत्र (पातली इत्त के लड़कों का नगर) के प्राचीन प्रासाद के उत्तरी भाग में एक कई फीट ऊँचा पत्थर का स्तंभ है; यह वही स्थान है जहाँ. पर अशोक राज ( ७४प८-ए०४०) ने नरक बनवाया था ।”- परंतु पीछे उपगुप्त* के प्रभाव में श्राकर वे बौद्ध हो चले | इसके अतिरिक्त “ग्रशोकावदान” में अशोक अपने कम॑चारियों और. स्त्रियों के संहारक के रूप में दिखलाया गया है। तथा उसे ब्राह्मणों को मरवानेंवाला भी कहां गया है | अ्रतः प्रकाशित है कि इन गाथाओं का उद्दे श्य अशोक को बौद्ध-धर्मी होने से पहले “चाण्डाशोक” प्रमाणित करना है। उनका ध्येय अशोक के पूव चरित्र को कल्लुषित करके अपने धर्म की प्रतिभा प्रमाणित करनी थी कि बोद्ध-धर्म ऐसे दुश्चरित्रों को भी पुणयशील बना सकता है |
. कया अशोक क्रर एवं अआतृघातक थे ?--यदि अशोक ने सिंहासन के युद्ध में केवल एक भाई का निधन किया तो: इसके प्रति' अशोक को “चाण्डाशोक” कहना उपयुक्त नहीं है। दक्षिणी ग़ाथाओं के अनुसार भाहयों के निधन की संख्या अलंकारिक है। यह भी कहा जा सकता है कि ये भअ्रातृगण सोतेले भाई थे। महाबोधि- वंश ( पृष्ठ ६६ ) के अनुरूप ६८ भाइयों ने मिल कर युवराज सुशीम की अध्यक्षतां में अशोक के विरुद्ध चढ़ाई की। अतः ऐसी अवस्था में अशोक भाइयों के मारे जाने का उत्तरदायी नहीं है । किन्तु इन
+उपगुप्त को बिना चिन्हों वाला बुद्ध भी कहते हैं। (अलक्षणा वुद्धाः ।)
अशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार के
उपरोक्त कह्पित गाथाशओरं के भ्रम में पड़ कर कोई भी व्यक्ति अशोक पर आतृधातक जेसे निर्मम. आज्लेपों के लगाने में नहीं चूक सकते | श्रीतारानाथ अशोक को ६ भाइयों का घातक कहते हैं | परंतु श्रीसेनारट ने उचित ही प्रमाणित किया है. कि. गाथायें ही परस्पर अशोक के ऋर जीवन के प्रति एकमत नहीं है १ यथार्थ में अशोक प्रार्भ से ही सात्विक इृत्ति वाले थे | उन्हें हम भ्रातृघातक नहीं कह सकते | यदि हम इन कथाओं को अशोक के निज शिलामिलेखों के उज्ज्वल प्रकाश में पढ़ें तो विदित हो जायगा कि इन गाथाओ्रों- एवं भीषण आ्ञेपों को नींव बहुत ही हल्की हे, अपितु उनकी असत्यता काँप कर दर भांग जाती है। हो पा ः सम्नाद् के लेख-प्रमाण गायाओ्रों के आक्षेपों का स्वयं प्रतिवाद है। ग्रिरनार शिलालेख प्रथभ कहता है, “मातृ और पित सेवा करना उत्तम है, तथाःमित्र, प्रिचितों, बाघवों, ब्राक्षणों और श्रमर्णों के प्रति उदार होना छाघनीय है |? इसी तरह तृतीय शिलालेख गिरनार भी लिखता है| पुनः पाँचवे: शिलालेख में अशोक धर्म-महामात्रों को नियुक्ति के प्रति कहते हैं, “ये धम-महामात्र, यहाँ ( पाठलिपुत्र ) तथा बाह्य दूरस्थ नगरों में मेरे तथा भाइयों और बहिनों के अंतःपुर और मेरे अन्य सम्बन्धियों के यहाँ सवंत्र नियुक्त हैं।” इसी तरह सम्राद द्वितीय गोण शिलालेख में कहते हैं कि संबन्धियों के प्रति उचित व्यवहार करना चाहिये | तथा चतुर्थ, षष्ठ, नवम, और द्वादश शिलालेखों से सम्राट् का अपने भाशयो-बहिनों एवं संबन्धियों के प्रति अत्यधिक स्नेह जान पड़ता है। इसो भांति &वे' स्तंभ-लेख में सम्राट कहते हें, “में अपने संबन्धियों की ही सेवा नहीं कर रहा हूँ, किन्तु अन्य दूरस्थ लोगों की भी सेवा कर रहा हूँ, जिससे मैं लोगों को आनन्द ( सुख ) पहुँचा सकू |? अतः सुप्रकाशित है कि कल्याण और धरम (के पुजारी अशोक अपने भाई, बान्धवों एवं संपूर्ण प्राणियों के परम हितकारी
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३० कफ * अशोक
थे, और दूसरे के कल्याण में ही उन्हें सुख की अ्नुमूति मालूम पड़ती थी.। इसके अतिरिक्त इमें इन शिलालेखों से यह भी पूर्ण रूप से मालूम होता है कि सम्राद का परिवार अत्यन्त विस्तृतथा | उनके कई भाई- बहिन तथा अन्य सम्बन्धी थे, जो पायलिपुत्र एवं वाह्मप्रान्तीय नगरों में
चसे हुए थे (स्तम्भ-लेख सातबाँ नं० ११) | इन सब का पालन |अशोक स्वयं करते थे, तथा सभी प्रकार उनकी चिंता तथा सेवा की जाती थी । उनके रक्षण-काय के अतिरिक्त सम्नाद् उनके परलोक-कार्ये में भी बड़े सहायक ये | सातवाँ स्तम्भ लेख कहता है “धर्म महामात्र तथा अन्य असुख कमचारी, यहाँ (पायलिपुत्र ) और वाह्म-नगरों के मेरे अवरोधों में, धर्म-कार्यों के लिये नियत हैं ।!( देखिए शिलालेख पंचम और त्योदश ) | पुनः सम्राद के हृदयोद्गार सुनिए, “सब मुनिसा मि पजा? “सब मनुष्य मेरे पुत्र हैं |? तथा “जिस प्रकार में अपने बच्चों के सुख का अभिलाषी हूँ, उसी भाँति में अपनी प्रज्ञा का हित और सुख इहलोक और परलोक दोनों में चाहता हूँ ।? ( कलिंग--शिलालेख जोगड़ा )| अ्रतः स्वशः -सुप्रकाशित है कि माता का-सा कोमल हृदय रखने वाला एक व्यक्ति, गाथाओ्रों के अनुरूप क्रर, पेशाविक बृत्तियों का कदापि नहीं हो सकता | जो सम्राद स्नेह की एक प्रतिकृतिं . स्वरूप हैं वे दानव हो कर श्रातृघातक कभी नहीं हो सकते । इसके अतिरिक्त सम्राट के सौतेले भाइयों का उनके शासनकाल में विद्यमान २हने का दमारे पाठ एक और प्रमाण ७वे स्तम्भ-लेख में सुरक्षित रखा है। «वाँ स्तम्म-लेख लिखता है, “यहाँ ( पाटलिपुत्र ) ओर बाहर के मेरे अवरोधों में, वे महामात्राण विविध भाँति के कई आनन्द देने वाले कार्यो में लगे हैं। तथा पुण्य कार्यो की बढ़ती के हेतु और धर्मानुष्टि के लिए मैंने श्रादेश किया है कि वे रानियों के और मेरे अतिरिक्त, मेरे पुत्रों और अन्य देवी-कुमारों के दान-कार्य के लिये नियत किये जायें |? इस संदर्भ के “देवी-कुमारों” को अशोक की रानियों के पुत्र न समझे जाने चाहिये | अपितु ये देवी-कुमार अशोक
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अशोक का प्रारम्मिक जीवन और परिवार. ११
के पिता की रानियों अथवा देवियों के पुत्र थे। अर्थात् ये कुमार अशोक के सोतेले भाई थे |* क् अतः सवा सुस्पष्ट हे कि अशोक के सहोदर भाई तिष्य (बितासोक) के अतिरिक्त उनके अन्य कई सौतेले भाई भी राज्यक्राल के समय सकुशल थे। तथा सम्राद् की ओर से उनका पूर्णतया पालन होता था एवं उनके परलोक के सुख का भार भी श्रशोक स्वयं .श्रपने ऊपर 'लिये थे जेसा कि शिलालेखों से प्रकाशित ही है | गाथाओं में भी अशोक और उसके सोतेले भाई के मध्य का सम्बन्ध स्नेह और अ्रातृभाव से परिपूर्ण दर्शाया गया है | कथा जिखती ह३--“महेन्द्र अशोक का सोतेला भाई था। वह बड़े ठाट-बाद तथा राजकीय ढक्क से रहा करता था। किन्तु वह संबमहीन, अ्रमर्य्यादित, शव अतीब क्र,र था | सम्पूर्ण प्रजा उससे पीड़ित थी.। अतः मंत्रियों ' ने सम्राद अशोक से महेन्द्र के दुर्विनीत स्वभाव के प्रति निवेदन किया | अशोक ने अपंने भाई को कहला भेजा और अश्रपूर्ण नेन्नों से बोले-- भाई, मैंने प्रजा 'की उन्नति और उनकी रक्षा का भार अपने स्कंघ 'पर लिया है | किन्तु स्मरण करो तुम केसे मेरे स्नेह और प्रेम को विस्मृत कर गये ! शासन के उदय-काल में ही नियमों का अतिक्रमण अ्रथवा उल्लंजन असंभव है, अतः यदि इस समय में तुमको दण्ड दूँ तो मुझे पितृ-कोप का भय होता है, और यदि क्षमा कर्ूूँ तो मुझे प्रजा के न्याय की अवज्ञा का डर है |? इस पर .. कथा लिखती है कि महेन्द्र ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और सात दिन की. सम्राट से क्षमा याचना की | इन सात दिनों में वह एक अंधियाली कोठरी में समाधि लगा कर ध्यान किया करता था | इस समाधि के फल्षस्वरूप वह अन्त में “अरहत” हुआ ! अतः सम्राद् ने महेन्द्र के रहने के लिये पाटिलपुत्र में कुछ गुफाये प्रदान कीं 5-एपनेट, ए०)प०7४७ [[, 9. 9!) फाहियान के अनुसार श्रशोंक
3 9,0, +एत709, ॥ 276.
अंक सवकाइल-न+ *०५०-
लक प्रनिस्य बारक कुम्भ ५त+
पी न आ>अलिकर ज मम ध.......00.०0६+०व० ०
५.3० न कलम भाअत किक
५ 4-+०००५+न्नननाननन-नय-- बपननन पिकीभन-+-+-
श्र प . अशोक... ४:
का एक भाई किसी पहाड़ी पर एकान्तवास किया करता था |इस भाई को सम्राट चाहते थे कि वह आ कर राजप्रासाद में रहा करे किन्तु उसने कबूल न किया । अतः सम्राद ने पाटलिपुत्र के पास ही उसके रहने के लिये एक गुफा बनवा दी।। अन्य ग्रंथों में महेन्द्र की कथा दूसरे ही ढंग पर दी गई है। पालो ग्रन्थों में उसे तिष्य कहा गया है. दिव्यावदान
में वितासोक लिखा है और कुछ चीनी ग्रंथ उसे सुदत ओर सुग़ाम भी कहते हैं। इन भ्रन्थों के अनुसार इस रांजकुमार का अपराध यंह था कि उसने एक बोद्ध पर अ्रतंवम मर्यादाह्दीन श्रादि दोषों को आरोपित किया था। ये दोष इस विशिष्ट बोद्ध पर असत्यता से लगाये गये थे अतः इस भाई को सम्राद उस्ते अपनी भूल दिखलाना चाहते ये । अतः सम्राट अशोक ने मत्रियों से मंत्रणा को; ओर उसे सिंहासन पर बिठलाया गया | वह सिंहासन पर बैठा था कि अशोक ने सहसा प्रवेश कर उसे पापहारिन् कह कर प्राणदर॒इ की सजा दी | यह सजा सातवे' दिन दिये जाने की घोषणा कर दी गई | इन सात दिनों के अनन्तर अशोक ने इस भाई के लिये सब प्रकार के ऐश्वर्य श्रोर भोग की सामग्रियों को एकत्रित करवाया, किन्तु मृत्यु के भय से भयभीत होने के कारण उसे किसी भी वच्तु में आनन्द न आता था। इसके अनंतर अशोक भाई के पास आ कर बोला,“देखो भाई, कोई भी बोद्ध जिसे मृत्यु ओर जन्म का भय है वह सांसारिक भोग और ऐश्वर्यों में नहीं फल सकवा। इसके पश्चात् वितासोक को क्षमा दे कर छोड़ दिया गया | तत्यश्चात् यह भाई सीमांत प्रदेश की ओर चला गया | वहाँ जा कर वह अरहत हुआ ओर पुनः एक बार पाठलिपुत्र में आकर अशोक से मिला इसके बांद वह एक अन्य प्रदेश को चला गया, किन्तु वहाँ के राजा ने निग्नन्थ जान कर उसे मरवा दिया | महावंश में भीं
3फाहियान ने इस भाई का नाम नहों दिया दे ।
इस प्रदेश का राजा निम्मन्यों के प्रतिकूल था । वह निय्न॑न्थों के मारने वालों को इनाम दिया करता था.।
न ४ & 05 ऋ 8० अंक व 522 ऊ. न 25.+४ >नस तब ही बल ० पन्पं-> लव 7 न 5, 7,
अशोक का प्रारम्भिक जीवन ओर परिवार १३
अशोक के भाई तिष्य का उल्लेख तो आया द्वी है-किन्तु इसके अतिरिक्त बितासोक के प्रति अन्य ग्रन्थों में और ही प्रकार से उल्लेख दिया मया है । इन अन्थों में तिष्य और वितासोकः दोनों भिन्न व्यक्तियों के रूप में लिखे गये हैं| गाथा कहती हे--वितासोक क्षत्रिय कुमारों की कला-कौ शल में दिन-दिन निपुण होता जाता था। जब वह क्षत्रिय विद्या तथा शिल्प में पूण हो चुका तो उसने ग्रहस्थाश्रम में प्रवेश किया | इस कुमार का गुरु अथवा श्राचाय गिरीदत्त था | अपने इन शुरू के पास उसने सुत्त-पिटक ओर अभिधम्म-पिटक का मनन किया | एक दिन यह कुमार ज्षोर-कर्मे (मस्सु-कम्म) अथवा मुंडन कर रहा था कि उसे दपंण में अपने सफेद बाल दिखलाई दिये | सफेद बालों को देख कर वह जीवन की असारता पर विचार करने लगा । अतः उसने आचार्य मिरीदत्त से प्रजज्या अहण की और थोड़े ही समय में “अ्रहत”? पद को पहुँच गया। ([05, 9. 295-0।
: अतः इन सब संदर्भों से सवथा सुस्पष्ट है कि अशोक अपने भाइयों के प्रति श्रत्यन्त स्नेहपूर्ण और दयालु थे। भाइयों को किसी भी प्रकार पीड़ित करने में वे पितृकोप-से डरते थे।| तथा अशोक के कई भाई उनके राज्यकाल में विद्यमान थे। इसलिये कहा जा सकता है कि अशोक ने भाइयों का रक्त बहा कर सिंहासन अहरणण न किया था, अपितु ६६ भाइयों के मारने का आक्षेप, विश्व-ग्रेमी ओर विश्व-
रक्षक अश्रशोक पर सवथा असत्य प्रतीत होता है | किन्तु केवल इतना कह सकते हूँ कि संभवतया अशोक ओर ज्येष्ठ भाई सुशीम अथवा सुमन के मध्य सिंहासन के लिये कुछ युद्ध हुआ होगा।
काश्मीर का शैव-सम्राद् अशोक--कल्हण राजतरंगिणी में सम्राट अशोक को काश्मीर का सम्राद कहता है, वह लिखता है--- “शाकीनर की मृत्यु होने पर उनके चाचा का पुत्र अथवा शकुनी का प्रपोत्र धार्मिक अशोक ने प्रथ्वी पर शासन किया। इस सम्राद ने श्रीनगर की काश्मीर को राजनगरी बनाया | यह सम्राद मूतेश शिव
2 333%033०५०- ००००० ५ ७०+ ००४००: ५००००००००५
श्ध , मु ख्रशोक
का उपातक एंव शैव-मतावलम्बभी था। उसने विजयेश में शिव के दो मन्दिरों का निर्माण करवाया | ये मन्दिर अशोकेश्वर' के नाम से प्रसिद्ध थे (कल्हण, राजतरंगिणी---१ ०१-१ ०६)। पीछे ये सम्राट जिन” हो चले, ओर उन्होंने बहुत से स्तूपों का निर्माण करवाया ( कल्हण राजतरंगिणी, १०२ ) | मं 80.2 पर 3 ४5 0] ' घमल्िपियों पर आशंका-ये धर्मेलििपियाँ प्रियदर्शी श्रथवा
प्रियद्शिन नाम के राजा से लिखवाई गईं थीं | किन्तु प्रियदर्शी--प्रिय-
शिन के अतिरिक्त कहीं-कहीं .पूर्ण तंज्ञा “देवनांप्रिय प्रियदर्शो राजा” का (रूमीनिन्दी तथा निगलिव) प्रयोग किया गया है| सारनाथ-स्तंभ- लेख, तथा रूपनाथ, सहसराम, बेराट और तीसरे मेसूर शिल्ाभिल्ेख में केवल देवानांग्रिय ही लिखा है | प्रथमतः जब श्रो जेम्त प्रिसेप ने ब्राह्मी लिपि का स्पष्टीकरण किया था तो उन्होंने इन शिलालेखों को
पहिले सिलोन के राजा तिष्य की बतलाई; क्योंकि उसके नाम की
संज्ञा भी देवानांप्रिय थी | किन्तु जब मास्की शिल्ाज्ेख का पता लगा तो यह बात. निश्चयात्मक रूप से निर्धारित हो गई कि ये शिलालेख गय्य सम्राद अशोक से ही प्रकाशित की गई थीं | मास्की में श्रशोकस' लिखा वेराट शिलालेख भी देवानांप्रिय को मगध-सम्राद लिखता है । इसी तरह पाँचवाँ शिलालेख राजनगरी पाटंलिपुत्र का भी उल्लेख करता है, अतः अ्रत्र सवथा निर्धारित हो चुका है क्रि प्रियदर्शी अथवा देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा और अशोक एक ही हैं। इससे स्वंशः स्पष्ट है कि अशोक प्रियदर्शी, प्रियदशिन तथा देवानांप्रिय के नामों से भी प्रख्यात थे। अतः प्रिसिप को आखिर अपनी पहली धारणा को त्वागना पड़ा ( 0. (५४, 9. 943) ॥ देवानांप्रिय--अशोक ने अपने पूवजों की भाँति ही देवानांप्रिय को अपना उपनाम रखा था। आठवाँ शिलालेख कहता है-- “विगत काल में देवताओं के प्रिय राजा (देंबानांप्रिय) विहार-यात्रा को
अशोकेन निर्मिता ईश्वर - अशोकेश्वर ( मध्यसपदलोपी समास )
9 के 2 5, 5 5 2377 2 आप हक 225७० पर कभी स्फ्रर सं प०ा हम । जाके यों कही जप जलन: कार कस न 2-० आब पिनि८ च्रू - दा २५ अत +++ “ना न आ 2
अशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार
निकला करते थे |” अतः इस बृत से सवथा प्रकाशित है कि सम्राद. केपूवज भी “देवानांप्रि” कइलाते थे | .........््रररख़ मुद्राराक्षत में भो चन्द्रगुप्त कों “प्रियद्शनत्तो” कहा गया है। नागाजुन-गुद्दा-लेख में दशलथ देवनांप्रिय लिखा है।यह दशरथः अशोक का पोत्र था | अतः प्रकाशित है कि पूब. प्रचलित मौंय्ये प्रथा के अनुसार ही सम्राट अशोक ने देवानांप्रिय और प्रियदर्शिन के नामों को अपनाया था |. इसी से शिलालेखों में हमें केवल एक जगह अशोक लिखा मिलता है,-बाक़ी लेखों में उपनाम का ही प्रयोग किया गया है | देवानांप्रिय का अर्थ है--“देवताओं का प्यारा”, तथा प्रियदशिन का अर्थ है---“जो देखने में प्रिय हो |” पाणिनि परः पाताञ्जलि के महाभाष्य के अनुसार देवानांप्रिय का--भवान,; दीर्घायु,. ओर आयुष्मन् की भौति सम्मान तथा प्रसाद के अथ में प्रयोग किया जाता था | किन्तु कुछु समय के बाद “देवानांप्रिय” का अर्थ बदल कर 'मूख” हो चला-कात्तायान का एक वातिक है--“देवानांप्रिय इति च (मू्खें:) अ्रन्यत्र--देव प्रियः ( भद्दोजी दीक्षित ) (सिद्धांत कोमुदी पृष्ठ २६५) |” द अशोक का नक्षत्र--ञँचवे स्तम्भ-लेख में सम्राट ने मेना,. सारिका, तोता, हंत, मछुली श्रादि जीवों को मारने का निषेध किया. है | यह स्तंभ-लेख कहता है, “देवताओं का प्रिय कद्दता है कि अभिषिक्त होने के २६वे' वर्ष मैंने निम्न पशुओं के बध का निषेध कियां--'तोता, सेना, अरुण, हंस, वन-हंस, बक, सारस, जलूका, चमगीदड़, अम्बा कपालिका, दली, अ्रनधीका-मच्छ, विदर्वी, गंगा- पुपुत्तका, संकुज-मच्छु, प्राणशासू , कच्छुआ, बारसिहा? आदि, तथा अन्य चतुष्पद जो न खाये जाते हैं ओर न काम में आते हैं ।” इस बृत्त से मालूम होता है कि सम्राट् इस स्तंभ-लेख में आये
हुए पशु-पक्षियों को पवित्र समक उनका मारना अधर्सम, अथवा |पाप' के अन्तर्गत समभते ये | हमारे इस पक्षु का कौटिल्य भी समर्थन:
पधनशगासतत्ता का दब कर पान
'श०क सहारे शेटम शक फ्क्क हम
॥|] ः |. ॒ ः
पटक 2 पट पद्म यम 5 72
्द् अशोक
करता है। अथशाज््र (छोक २२२) में भी कुछ ऐसे ही. जीवो---जैसे, हंस, मछली आदि के. मारने का निषेध किया गया है | इसके अतिरिक्त यह स्तंभ-लेख फिर केहता है--#तिष्य और पुनवंसु के
दिन“ “गाय और घोड़ों को दागा न जाय ।?” इस बृत्त में
तिष्य और पुनवंसु ये दो नक्षत्र आये हैं।यह बात कुछ आश्चर्य को-सी है कि सम्राद् ने क्यों केवल इन्हीं दो नक्षत्रों का नाम लिया ? क्या इन नक्षत्रों से कोई विशेष तात्पय है, अर्थात् कया ये दो नक्षत्र सम्राद् और प्रंजा' के हैं! साथ ही इन दोनों नज्ञज्रों में 'तिष्य? का 'नाम पहिले आया है तथा लेखों में भी अधिकतर इसी नक्षत्र अर्थात् तिष्य नक्षत्र का प्रयोग किया गया है। इससे मालूम होता
है कि तिष्य और पुनवसु नक्नत्नों में से तिष्य नक्षत्र ज्यादा महत्त्व का
है | अतः: तिष्य नक्षत्र की महत्ता से संबथा प्रकाशित होता है कि यह 'नक्षत्र सम्राट का था और पुनवसु प्रजा का |
अभिषेक के दिवस पर उत्सव---प्रत्येक शुभ तथा मांगलिक 'अवसरों जैसे जन्म और अभिषेक पर उत्सव मनाने की प्रथा बहुत प्राचीन है | जन्म और अ्रभिषेक आदि उत्सवों के समय राजा लोग असन्नता में बन्दियों को मुक्त किया करते थे | इसी भाँति पाँचवे स्तंभ- शेख में सम्राद् कहते हैं--“२६वे वर्ष यावत् तिलक होने के, मैंने २५ बार बंदियों को मुक्त किया है |”? इस बृत्त से प्रकाशित है कि सम्राद् अपने अभिषेक के दिवस पंर उत्सव मनाया करते थे, जिस .खुशी में बन्दियों को मुक्त किया जाता था। कक
सम्राट का परिवार--प्रियदर्शो अशोक ने धर्म के प्रचार के
हेतु ही अंपने लेखों को प्रकाशित करवाया था| सम्राद ने स्वयं इन लेखों को धम्म-लिपि कहा है, (इयं धम्मलिपि लेखिता चिलिपित्यकता होठ) किंतु धम्म-लिपि होते हुए भी इन-लेखों में अकस्मातू बहुत कुछ
ऐतिहासिक सामग्री आ गई है।.....
अशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार १७
कल्हण के इस कथन से इतिहासज्ञों ने यही तथ्य निकाला है कि काश्मीर सम्राट अशोक के अधीन था | द
अशोक का सच्चा इतिहास वस्त॒ुतः हमें उन निजी शिलालेखों से उपलब्ध होता है | इन शिल्लामित्षेखों की सत्यशीलता आशंकारहि है । ये शिलालेख क्या वस्तु हैं ! प्रथम हम इसी बात का यहाँ पर . परिचय दगे। ये लेखप्रमाण, पाषाणों, स्तम्भों एव गुफाओं पर अशि लिखित शिल्लाभिल्ेख हैं। ये पाषाण-लिपि अथवा शिलालेख दो प्रकार की हैं- द
(१) चतुदश शिक्षाभिल्लेख--चत॒दंश शिलालेख चौदह विभिन्न _ शिलालेखों के समूह हैं| इन शिलाभिलेखों को भिन्न-मिन्न-स्थलों पर
पाया गया है। (२ ) गोण-शिल्ाभिलेख--ये दो भिन्न लेखों के रूप में हैं। . (३ ) स्तम्भ-लेख--ये स्तंभ-लेख भी दो प्रकार के हैं। प्रथम--- _ सप्त-झह्तम्भ-लेख और द्वितीय--गौण-स्तम्भ-लेख |
(४ ) गुफा अथवा गुहालेख--ये गुफालेख वे लेख हैं जो विहार के बराबर पहाड़ी की गुफ़ाओं में खुदे पाये गये हैं ।
इन सब को साथ मिला कर ३३ विभिन्न शिलालेख हैं। इन लेखों से अशोक के इतिहास पर बहुत प्रकाश पड़ता है | तथा इन्हीं शिला- लेखों के आधार पर अधिकतया हम इस पुस्तक में अशोक के शासन, धर्म आदि कार्य्यों के वणन करने का प्रयत्ष करंगे। अतः इन शिलालेखों से हमें अशोक का इतिहास जानने में बहुत कुछ सहायता मिलती है--ये शिलालेख सम्राट के पारिवारिक जीवन पर भी यथेष्ट प्रकाश डालते हैं | पाँचवाँ शिलालेख लिखता है--
“ये (धर्म-मद्दामात्र) यहाँ (अथवा पाठलिपुत्र) तथा वाह्य दूरस्थ नगरों में मेरे तथा भाइयों और बहिनों के अन्तःपुर और मेरे अन्य सम्बन्धियों के यहाँ सर्वत्र नियुक्त हैं |” इस बृत्त से सवंथा प्रकाशित है कि अशोक के कई भाई, बहिन तथा श्रन्य सम्बन्धी थे जो राज-
२
कर कप अशोक
नगरी पाटलिपुत्र तथा बाहर के नगरों में बसे हुए थे | बहिनों के नाम का हमें कुछ पता नहीं, केवल तीन भाइयों के नाम ज्ञात हैं--तिष्य (वितायोक) सहोदर भाई, महेंन्द्र, तथा सुशीम (सुमन) ज्येष्ठ भाई | सम्राद अशोक का अवरोध--सम्राद् की कितनी रानियाँ थीं इसका ठीक निश्चय करना कठिन है | पाँचवे शिलालेख से इतना अवश्य पता चलता है कि सम्राद की कई रानियाँ थीं, क्योंकि इस लेखं में सम्राद ने अपने कई अवरोधों (ओलोधनेसु - अन्तःपुर) का उल्लेख किया है| इन अवरोधों में से कुछ तो पाटलिपुत्र में थे और कुछ बाहरी नगरों में स्थित थे, [ हिंद (पाटठलिपुत्र-गिरनार ) च बाहिलेसु च नगलेसु सवेसु सवेसु ओलीघनेसु ( अवरोधनेषु संस्कृत ) में...]] यहाँ पर यह सवाल पेदा होता है कि सम्राट के अवरोध राजनगरी के अलावा बाहरी नगरों में क्योंकर थे ! यदि हम यह कहें कि ये अवरोध सम्राट के बाहरी नगरों में रहने वाले भाइयों के ही हैं, तो यह भी ठीक नहीं हो सकता; क्योंकि स्पष्टतः सम्राट इन अवरोधों को अपने अवरोध '( में ओलोधनेसु ) कहते हैं। अ्रतः निःसंदेह ये अवरोध सम्राट की वाह्य नगरों में रहने वाली रानियों के थे | महावंश से भी मालूम होता है कि सम्राट की एक रानी उज्जेन के पास चेत्यगिरी में रहा करती थी । महेन्दर तथा संघमित्रा इसी रानी देवी की सन्तान थीं ( महावंश ) | अतः प्रकाशित है कि सम्राद अशोक का एक अवरोध अथवा अंतःपुर चेत्यनगर में था। महावंश सें ही हमें यह, भी मालूम होता है कि असन्धिमित्रा अशोक की प्रधान रानी थी, ( महावंश २०वाँ अध्याय ) | गौण-स्तम्भ-लेख चतुर्थ से हमें अशोक की एक और रानी का पता चलता है, इस लेख में सम्राट लिखते हैं --“देवानांप्रिय के अनुशासन से सबत्र महासात्रों को यह कहा जाय कि यहाँ जो कुछ भी दान द्वितीय रानी ने किये हों---चाहे आम्र-कुल्ल, चाहे घम-शाला, चाहे अन्य कुछ, सब की गणना रानी के नाम किये जाये | यह द्वितीय रानी कार॒ुवाकी, तिवाला की माता को, विनय
जि जन+च्कीीनलनीन ल--म--नमप+८प्फस,,
र््िं्स्य््प्न्न्स्य्न्क्न्ल्ल्लचचस्स्स्व्लधना (2 ४ हट न सम हे 50 3 कम, गज मम ट हज य पर फरड। हल [222० हट पा तन न ल्- पा 5 पल 2 के के हक न ह 5 > रा ह+ ५ न, हे ४ द > 7 5 5 लय 0 0 आय दया कर 6 बमीापटें:..2&बा ८ 0-५ 2. 7+७००००-+८०>०>- ४ ०.-०.०० ० “७५. 000.” 25 58 4 पल बजट 2: रकरअभ का + “कम न ० की कटाई है कहे समर: अर हि हि.3 जी "जा कल
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ग्रशोक का प्रारम्मिक जीवन ओर परिवार ८: शहर
है” अतः प्रकाशित है कि सम्राद् की दूसरी रानी कार॒ुवाकी थी । इस रानी से सम्राद का तिवाला अथवा तिवारा नाम का पुत्र हुआ था | दिव्यावदान ( एष्ठ ३२६७-३६८ ) तिष्यरज्षिता को भी सम्राट की रानी कहता है।
गाथाओ्रों के अनुसार पद्मावती भी सम्राद की रानी थी | इस रानी से अशोक. का कुनाल नाम का पुत्र हुआ था| पहले कुनाल का नाम धर्म विवधन था। फायहान ने इस घम-विव्धन को गान्धार का शासक लिखा है, ( लेगस, प्रकरण १०, पृष्ठ ३११ )। इसी घम-विवर्धन अथवा कुनाल का पुत्र सम्रांट सम्प्रति हुआ |
सम्राट के पुत्न--रानियों का उल्लेख करते हुए हमें पूव मालूम हो चुका है कि सम्राद अशोक के, उज्जनो, महिन्दों ( अ्रथवा महेन्द्र ) ओर तिवारा नाम के ( अथवा तिवाला ) तीन पुत्र थे | किन्तु कल्हण के अनुसार अशोक का एक चौथा लड़का तालुका भी था। कल्हण- राजतरंगिणी लिखती है कि भूतेश शिव के वरदान से अशोक को यह
प्राप्त हुआ था ( कल्हण-राजतरंगिणी १--१०७-१२२ ) जालोका की
रानी ईशान देवी थी, ( कल्हण-राजतरंगिणी १, १०७-१२२ )। पुत्रों के अलावा जेसा कि गाथाओं से पता चलता है सम्नाद अशोक की दो कन्यायें भी थीं | अपने भाइयों, बहिनों, पुत्र तथा पुत्रियों सद्वित अशोक के अन्य ओर भी कई संबन्धी जेंसा कि पाँचवे शिलालेख से मालूम होता है। समासतः अशोक का बहुत भारी परिवार था | संक्षेप . में गाथाओं ओर शिलालेखों से हमको सम्राद अशोक के निम्न सम्बन्धों का परिचय मिलता है--
पिता--बिन्हुसार | द "
माता--शुभद्वांगी ( उत्तरी गाथा ), धर्मा ( दक्षिणी गाथा )।
भाई---सुमन (सुशीम)- ज्येष्ठ तथा सोतेला भाई | वितासोक- ( तिष्य ) सहोदर भाई । महेन्दर--सौतेला भाई।
२० अशोक
रानियाँ--असन्धिमित्रा, कारुवाकी, देवी श्रथवा विदिसा महादेवी शाक्य-कुमारी, पद्मावती, तिष्यरक्षिता | पुत्र--महेन्दर, उज्जेनों, तिवारा ( तिबाला ), कुनाल | ( घंस- विवर्धन ), जालौका । पुत्री--संघमित्रा, चारुमती । दामाद--अ्रमिश्रह्ला ( संघमित्रा का पति, सहावंश ५ )। देवपाल ( चारुमती का पति ) | पौत्र--दशरथ ( दशलथ-देवानांप्रिय--नागाजुन-गुफा-लेख ) .. सम्प्रति, सुमन ( संघमित्रा का पुत्र, महावंश १३वाँ प्रकरण )। अशोक का निश्चत जीवन--सम्राद के निभ्धत जीवन ([2/ए8[० ]6) का ठीक-ठीक पता लगाना बहुत कठिन है । राज्य के कार्यों" से निवृत्त होने पर सम्राद क्या किया करते थे--कहाँ समय बिताया करते थे---इसका हमको बहुत कम अपितु कुछ भी ज्ञान नहीं है | इस
विषय पर शिलालेख भी वस्तुतः चुप है। केवल ६९वें शिलालेख गिरनार
से सम्राट के निभ्टत जीवन पर कुछ प्रकाश पड़ता है। इस शिलालेख में सम्राद कहते हैं, “आह अतिक्रातं अंतरं न भूतपूव , सब कलं॑ अथकंमे, व परिवेदना वा, ते भया एवं कतं सववे काले, भुज्ञलमानस में ओरोधनम्हि | गभागारम्हिह, वचम्हि व विनीतम्हिदं चद्रयानेसु चसवत्र पटिवेदका खिता अथे से जनस, परिवेदंतु में संवा?--श्रथात् , “विगत काल में सव समय पर राजकार्य और प्रजा का राजा से आवेदन न हुआ करता था| सो मैंने ऐसा प्रतन्ध किया है कि सब समय में जब में खा रहा हूँ, या हरम में होऊँ, या अपने अंन्तःपुर में होऊ, चाहे ब्रज में, चाहे घामिक शिक्षालयों में, चाहे वाटिका में, सब जगह प्रतिवेदक को आदेश दिया गया है कि वे प्रजा के कार्य की (मुझको) सूचना दे ।” अत: इस शिलालेख से सबंथा प्रकाशित होता है कि राजकार्य से निदह्वत्त होने पर सम्राटू--भोजनालय,
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अशोक का प्रारम्भिक जीवन ओर परिवार * २१
हरस, अंतःपुर, प्रमदवन, त्रज आदि स्थानों में--अपना बाकी समय बिताया करते थे सम्राट का आहार--मेघस्थनीज के वर्णन से मालूम होता है कि मोय्य-राजाओं का भोजन साधारणतया चावल आदि भारतीय भोजन ही हुआ करता था। इसके अलावा अशोक के शिलालेख से यह भी विदित होता है कि सांघ अथवा शोरवा भी राजकीय भोजन का मुख्य अंग था | दूसरा शिलालेख कहता है--“पुरा महानस्मिह देवानं प्रियस प्रियदुसिनों रामो अनुदिवसं ब हनि प्राणसतसहस्थानि आरचिसु : सूपाथाय से अज यदा अ्रयं धम्मलिपी लिखिता तिर्नि मेव पानानि आलमियंति ढुवे मजूला, एको मगो, सो मगो न घुबों !” अर्थात् , पहल्ले राजकीय रसोई-घर में या रसवती में शोरबे के लिये सहसों प्राणी मारे जाते थे, किन्दु पीछे केवल दो मोर और कभी-कभी एक हिरण मारा जाने लगा, यद्यपि पीछे इन तीनों का मारना भी निःसंदेह बन्द कर दिया गया होगा (दूसरा शिलालेख) फलतः मालूम होता है कि सम्राट को मांसाहार अ्रति प्रिय था और यद्यपि पीछे वे बौद्ध हो चले थे तब भी सहसा शोरबा? न छोड़ सके | फिर भी तीन पशु (दो मोर या मयूर और एक हिरन) रसोई के लिये मारे ही जाते थे | किन्तु इसी शिलालेख में सम्राट ने इन तीन जीवों को भविष्य में न मारने की प्रतिज्ञा की है | यह निश्चय ही सत्य हो सकता है कि पीछे चलकर सम्राट ने इन शेष जीवों का भी निषेघ करा दिया होगा, कित्तु उससे पहले यदि कहें कि सम्राट् मांसाहारी थे- तथा सोर का मांस उन्हें सब- से अधिक प्रिय था, तो यह घारणा अखुत्य नहीं हो सकती | मोर या मयूरों का नियमपूवक मारा जाना और हिरण का कभ्ी-क्ी ( सारा . जाना ) इस बात को प्रमाणित करता है कि सम्राद् मोर का शोरबा अधिकतया पतन्द करते थे | बुद्धघोष ने भी लिखा है कि मध्यदेश तक मगध प्रांत के ज्ञोगों को मयूर का मांस अधिक प्रिय लगता है।._ हि
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अशोक
किन्तु अशोक की महत्ता आज स्वोपरि है, वे सच्चे त्वांगी और पूण धार्मिक थे, ओर जेसा कि कल्हण कहता है वे इंद्रियजीत थे | उनमें संयम था और इंद्रियाँ उनके शासन में थीं | उन्होंने अपने सन को वशीमृत कर, सारे प्रलोभनों को तिलांजलि दे श्रहिंसा_के व्रत को अपनाया ओर उसी को अपना “जयघोष? घोषित किया | आज भी
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असहाय दुबलों का हाथ सम्हालती हुई हिंसा पर सत्याग्रह द्वारा अहिंसा
से विजय घाप्त करने का आदेश करती हुई सम्राद की वह पावनी अहिंसात्मक वाणी युगों के अंतराल से सरकती हुई हमारे हृदयों में गूज उठती है । एक ओर शिलाभिल्लेख द्वारा सम्राद हमें अपने निम्वत्त जीवन का कुछ ओर आभास कराते हैं। आठवाँ शिलालेख शाहवाग- गढ़ी लिखता है--“'विगत समय में राजा लोग ममोरञ्जन के हेतु अथवा विनोदाथ विहारयात्रा के लिये निकला करते थे। किन्तु वतंमान देवानांप्रिय प्रियदर्शी सम्राद ने अभिषिक्त होने के दशवे वष में सम्यक-ज्ञान की याप्ति की या वुद्धनाया की यात्रा की, तब से यह घम-यात्रा प्रारंभ हुईं, इस धर्सयात्रा सें निम्न बातें हुआ करती हैं--- “अ्रमणों ओर ब्राह्मणों का दशन तथा उन्हें दान देना, दृद्ध-जनों का दर्शन और सोने का वितरण , जनपद के लोगों से मिलना और उन्हें सदाचार तथा घम पर शिक्षा देना, तथा यदि उचित समझा जाय तो उनके साथ धर्म-विषय की जिज्ञासा करना |? इस शिलाभिलेख का निरीक्षण करने से मालूम होता हैं कि अशोक से पूववर्ती राजाश्रं की विहार॒यात्रा (आखेट के लिये जाना) मनवहलाव का प्रशुख साधन था | इस प्रथा का अशोक ने भी अनुसरण किया और न्यूनत: अपने अभिषेक के दशवे बष तक इसी पथा के अनुगामिन बने रहे । क्योंकि सम्राद् अपने शिलालंख में स्व्रयं स्वीकार करते हैं कि १०वे वर्ष (अभिषिक्त होने के) ही उन्होंने विहारयात्रा को घ्मयात्रा में बदला था। तत्पश्चातू सम्राद अपना अवकाश का समय घर्मे-सम्बन्धी विषयों तथा घार्मिक स्थानों की यात्रा करने सें व्यतीत करने लगे | इसी समय
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अशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार रहे
उन्होंने सम्बोधी, बुद्धनाया, लुम्बिनी-बन आदि तीथ-स्थानों की यात्रा की | किन्तु अमिषिक्त होने के १० वर्ष पहले वे अपना समय अन्य प्राचीन राजाओं की माँति कई प्रकार के मनोरंजनों विहार॒यात्रा आदि में व्यय किया करते थे। इन सब मनोरख्जनों में “अ्राखेट? प्रमुख मनोरजझ्ञन समझा जाता था। ये विहारयात्रार्ये कैसी . होती थीं, इसका निश्चय करना कठिन है | इस विषय में सम्राद के . शिलालेखों से हमें बहुत कम ज्ञान है किन्तु चूँकि सम्राद शिलालेखों में बहुधा आखेट का ही उल्लेख करते हैं इसलिये अनुमान किया जा सकता है कि आखेट ही विहारयात्रा का मुख्यतः विज्ञास था | प्राचीन राजागण शिकार के अधिकतया प्रेमी हुआ करते थे | आखेट ही उनकी सवप्रिय क्रीड़ा की वस्तु थी | प्राचीन राजाओं की इस प्रथा को कई पुरातन राजनीतिज्ञों ने दोषपूण बताया है। पिशुन कहता है---“आखेट निकृष्टतम व्यसन है क्योंकि इसके निम्न दुर्विकार हैं-- डाकुओं से लूटा जाना, वेरी के कब्जे में आ जाना, दाथी के पंजे में फेसना, दावामि, भय, दिग्माग को भूल जाना, भूख, प्यास तथा जीवन के नष्ट होने का डर |” किन्तु आचाय कौटिल्य इसका विरोध करते हुए. कहते हैं--“आखेट सवसुन्दर व्यायाम है। आखेट द्वारा व्यायाम करने से अत्यधिक चर्बी, पसीना और पित्त की शान्ति होती है। श्राखेट खेलने से चलती-फिरती तथा स्थिर वस्तुओं पर लक्ष्य करना आता है तथा क्रोधित पशुश्रों के स्त्रभाव का ज्ञान होता है आदि |?"
सम्राद के आखेट खेलने की पद्धति चन्द्रगुप्त मौय के सम- कालीन मेघस्थनीज़ ने आखेट का इस प्रकार वणन दिया है सम्रादू युद्ध के समय ही प्रासाद से बाहर नहीं निकला करते, अपितु न्यायधिकरण (शासन), यज्ञ (होम), तथा आखेठ के लिये भी
१ श्री कौटिल्य अथशासत्र, ३९९ 'इलीक ।
हट का ही
२४ अशोक
महल से बाहर जाना पड़ता है। आखेट में सम्राद बकेनैज़लियन
( 32टग्रवण5ठ7 ) पर जाया करते हैं। स्त्रियों की एक काफी
बड़ी भीड़ सम्राट को घेरे होती है । स्त्रियों के घेरे के बाद भाले वाले सेनिक खड़े रहते हैं | राज-मार्ग रस्सी से अंकित रहता है | इस रस्सी को कोई नहीं लाँध सकता तथा यदि कोई स्त्री अथवा पुरुष उसे लॉघ जाय तो मृत्यु का दए॒ड दिया जाता हे | जुलूस के आगे बाजे वाले होते हैं | प्रविष्ट स्थान से आखेट खेलते हुए सम्राट मच पर से तीर... चलाते हैं किन्तु खुले स्थान से शिकार खेलते समय सम्राद हाथी के पीछे होकर तीर फेंका करते हैं | आखेट में जानेवाली स्तरियाँ, रथ, घोड़े तथा द्वायियों पर सवार होती हैं | ये स्त्रियाँ शर्त्र-अशस्त्र से इस प्रकार _ सजी होती हैं, मानो युद्ध को जा रही हों (/०(४व]8 #॒तटलंध्णा क्$0द5 ७9ए थ४ठ5ठ58879870888 दातठत 20850, 0. ४१)। मोय्य॑-सम्राटों के आखेट करने का क्या ढंग अथवा तरीका था, यह
. उपरोक्त विवरण से संबंधा प्रकाशित है। अतः कह सकते हैं कि
अभिषेक के १० वर्ष पूर्व तक सम्राद अशोक भी इसी ढल्ल पर आखेट खेल्लने को जाया करते थे | किन्तु अभिषेक के १० व पश्चात् सम्राद ने आखेट खेलना छीड़ दिया और अब वे- विहारयात्रा के बजाय धमयात्रा करने लगे | ० द बोद्ध-धर्म को ग्रहण करने से पहले समप्नाट अशोक--बौद्ध होने से पूव सम्राट का जीवन कैसा. था--इसका ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता | किन्तु शिल्लालेख से जितना हम मालूम कर सके हूँ उसे यहाँ पर लिखने का प्रयज्ञष करंगे। पहला शिलालेख कहता है, “इयं धम्मलिपि देवानं पियेना, पियद्सिना लेखिता द्विदा, ना किद्धि जिवे आलबित पजो हितविये नो पि चा समाजे कटंविये, बहुव हि दोषा समाजसा देवानांपिये पियद॒वी लोजा द्रबति अभिवि. चा. एकर्तिया समाज साधुमता देवानं पियसा पियद्सिसा लाजिने पुत्ते महानससि
देवान॑ पिय पियद्सितसा लाजिने अनुदिवर्स बहुनि पान सहसानि
अशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार रा
आलमियिसु--कालसी |” अर्थात् , “यह धम्मलिपि प्रियदर्शी राजा द्वारा असिलिखित की गई | यहाँ न कोई जीव मारा जावे . और न उश्की बलि दी जावे | न कोई समाज किया जाय । क्योंकि देवताओं का प्रिय ऐसे समाजों में कई दूधण देखता है किन्तु कुछ समाज ऐसे भी हैं जिन्हें सम्राद् स्तुत्य समझते हं। पहले देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा की पाकशाला में प्रति दिवस कई सौ हजार जीव शोरवे के लिये मारे जाते थे।” इस उपरोक्त शिलालेख को पढ़ कर आश्चय होता है कि सम्राट के राजकीय रसोई-घर में क््योंकर कई सो सहख्॒ जीव शोरवे के लिए मारे जाते थे | क्या ये सब जानवर सम्राट के निज पारिवारिक लोगों के खाने के हेतु मारे जाते थे ! किंतु यह भी असम्भव-सा प्रतीत होता है | यदि साधारणतया हिसाब लगाया जाय तो एक पशु तथा हिरन & स्त्री-पुरुषों के लिये काफी है। अत: इस हिलाव के अनुसार सौ सहस्त॒ अर्थात् एक लाख पशुतओओं को १००,००० २८६८१६१००,००० लाख स्त्री तथा पुरुष-खा सकेंगे, किंतु
चू कि शिलालेख वहुवचन का प्रयोग करता है, इसलिये, २००,०००. पशुओं को १२०,००० लाख आदमी खाने के लिये चाहिये | यदि यह भी माना जाय कि इन जीवों में आधी संख्या पक्षियों को भी है तो फिर भी ६००,०००, ६ लाख आदमी अनिवाय हैं। तब क्या यह तंभव हैं कि सुप्नाट के अपने परिवार में नोकरों तथा सेवकों समेत ६००,००० स्त्रीं-पुरुष थे | अतः यह कहा जा सकता है कि सारी राजनगरी को प्रजा को जिमाने के लिये ही सम्राद इतने जीवों को : भरवाया करते थे | यह वात अत्यधिक आश्चर्य की नहीं समभनी चाहिये। महाभारत में भी रन्तिदेव नाम के एक ऐसे राजा का उल्लेख आया है, जो अपनी प्रजा को जिमाने के लिये रोज कई सहसों जीवों का शोरबा बनवाया करता था |१ इसके साथ ही महावंश भी लिखता है कि सम्राद् अशोक वौद्ध-धर्म अहण करने से पहले
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उबनप्र-आठ अध्याय, एष्ठ ११३९, हिन्दी महाभारत इ० ग्रे० ।
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अशोक
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६०,००० ब्राह्मगों को जिमाबा करते थे, (देखिए महावंश प्रकरण ४)
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अतः प्रकाशित है क्षि कई सौ-सहस्म प्राणियों का बंध प्रज्ञा को जिमाने के लिये ही किया जाता था इन पूवनिदिष्ट बृत्तों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन राजाशों में प्रजा को जिमाने की प्रथा थी | साथ. ही जिस परिस्थिति में चन्द्रगुप्त मोब्य ने मगध के राजसिंद्यासन पर अधिकार प्राप्त किया था, उस कारण, संभवतया अभी भी बहुत से लोग मगध में ऐसे थे, जो मोय्यों के शासन को स्वीकार नहीं करना चाहते थे, अतः इन लोगों की असंठ॒ुश्ता के कारण अशोक को भी राज्य के खो जाने का भय वना हुआ था | इसलिये अशोक संभवतया लोगों को अपनी ओर लाने के लिये ही, उन्हें भोज दिया करते थे | इस बात पर हमें आश्चय न करना चाहिये, क्योंकि हमें मालूम हैं कि अलाउद्दीन खिलजी ने जब जल्लालुद्देन खिलजी को मार कर शासन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया, तो प्रजा के असंतोष के भय से उसने लोगों को अपना पक्ष ग्रहण करवाने के लिये खूब रुपया बाँटा था । जिससे लोग पहले वाले राजा को भूल जाय ओर उसकी ही उदारता की सराहना करने लगें | समाज---शासनकाल के प्रारम्सिक भाग में सम्राद अशोक “समाज” द्वारा प्रजा का मनोरंजन किया करते थे। ये “समाज”? क्या हुआ करते थे, यही इमकों माल्रूम करना है । सेनाट “उम्राज” को उत्सव ( 76857ए5)8 ) कहता है ( #88प8 5७०5४, 9. 50) + किन्तु बूलेर (390]87) समाज को भेला? बतलाता है, . (४७४5 छठिप7]97 2770/(5 €€&# ४[॥, 0. 93-4--/०95 ०8७४ )/८४४) । खारामेल-लेख, में भी समाज को उत्सव कहा गया है। महाभारत में धनुष्र-युद्ध के लिये समाज कहा गया है (].२.8.,5, 00. 93) | किन्तु “हरिवंश” मल्ल- युद्ध करने को समाज कहता है। मेघस्थनीज के विवरण से भी मालूम होता है कि चन्द्रगुप्त के समय घोड़े ओर बेल-गाड़ियों की दौड़, तथा,
अशोक का प्रारम्भिक जीवन ओर परिवार २७
हाथी, बारहभधिंहा, सांड, मेढ़ा, आदियों की मनोविनोद के लिये लड़ाई हुआ करती थी | इन सब विवरणों के आधार पर कह ज़कते हैं कि समाज के उत्सव थे, जिनमें धनुष-युद्ध, मब्ल-युद्ध, घोड़े-गाड़ी, ओर बेल-गाड़ियों को दौड़, तथा जानवरों की लड़ाई हुआ करती थी। तथा बुलेर के अनुसार समाज में खान-पान गोष्ठी भी हुग्ला करती थी--अ्रत: इस अवसर पर लोग मांत तथा मदिरा का खूब व्यवहार करते थे | यही कारण है कि सम्राद ने बोद्ध-धर्म को ग्रहण करने के उपरान्त इन समाजों को बुरा कह कर बन्द करवा दिया। निःसंदेह ये समाज हिंसात्मक तथा अमर्यादित होने के कारण घर्म को आघात पहुँचाने वाले थे। बुत्तेर की सम्मति में ये समाज राजविद्रोहात्मक भी हुआ करते थे | अ्रतः सम्राद का इन समाजों को वनन््द करवानो अनिवाय एवं आवश्यक था । किन्तु, इसके अतिरिक्त एक और प्रकार का समाज भी हुआ करता था--इस समांज को सम्राट ने अच्छा कहा है। यह समाज क्यों अच्छा था--इसका स्पष्टीकरण चतुथ शिलालेख कर देता है | चत॒थ शिलालेख में सम्राट् कहते हैं--- “ग्रज देवेन प्रियस प्रियद्रशिनेर ने श्रमवरणेन भेरिषोषे, अहो ध्रमघोषे विमन द्रशन, अगिकंधानि अज्ञनि च, दिवनि रुपनि--द्रशेति जनस (मानसेरा) ।” अ्रर्थात् “देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा के धर्मांचरण के फलस्वरूप भेरीनाद ( वीरघोष ) धर्मघोष हुआ तथा लोगों को विमान के दशन, हृ्तियों के दशन, अमिस्कंष आदि अन्य दिव्य रूपों के दशन कराये गये |? इस बृत्त से प्रकाशित होता है कि इस दूसरे प्रकार के समाज में विमान के दशन, हस्तियों के दशन, अगरिस्कंघ _ आदि धार्मिक दिव्य रूपों के दशन कराये जाते थे, और इसी कारण यह समाज अच्छा समाज माना जाता था | | कलिंग-विजय और सम्राट का धर्म-परिवर्तेन--अशोक के जीवन की एक बहुत महत्त्वपूर्ण घटना है--कलिंग का युद्ध। कर्लिंग- युद्ध सम्राद् अशोक के जीवन का परिवर्तन-काल माना जा सकता है,
रद .... अशोक
अपितु यह युद्ध सम्राट् के जीवन को--पूर्वाद और उत्तराद्ध --दो भागों में बाँट देता है | पूर्वाद्ध जीवन जन्म से प्रारम्भ होकर, कृलिंग- युद्ध में समाप्त हो जाता है।
इसके बाद अशोक के उत्तराद्ध -जीवन का दूसरा भाग आरम्भ होता है| इस भाग में सम्राट अपने नवीन रूप में धर्मेंघोष करते हुए . प्रकट होते हैं और अन्त तक घ्म-पराक्रम करते हुए चले जाते हैं |
इतिहास के चरित्राख्यानों में हम कोई भी चरित्र ऐसा नहीं पाते जिसका हृदय बच्चों जेता कोमल, फूलों के समान सुन्दर भावनाश्रों से सुरभित, कवि-सा भावुक और राजा होते हुए भी मानवीय शुपों से परिपृण रहा हो | किंतु ढाई हजार वर्ष पूब भारत के इतिहास में एक ऐसे ही, चरित्र का प्रादुभाव हुआ था, जो विश्व के इतिहाह में मिन्तु सम्राट अशोक के नाम से प्रख्यात हुआ |
सम्राट अशोक मुख्यतः मानव थे। एक समय राजकीय भावावेश ५. , मेंआकर अशोक ने कलिंग को युद्ध में परास्त कर विजय किया, किन्तु 2 कि विजय करने के उपरान्त सम्राद को मली भाँति मालूम हो गया कि “विजय? और थुद्ध/ का अथ क्रितना भयानक और भीषण है । युद्ध । के दानवी परिणामों को देख कर सप्राद का कोमल हृदय विचलित हो हु उठा, और यह युद्ध अन्त तक सम्राट के जीवन-मा्ग का पाषाण?
(!]8 076) बन कर रद्दा | यह कल्निंग-युद्ध सम्राट अशोक का प्रथम ओर अन्तिम युद्ध था। इस भयंकर युद्ध का वणन करने से पहले, पाठकों को, अशोक के समकालीन कल्िंग देश की एक झांकी दिखला देना आवश्यक है| इससे पढ़ने वालों को विदित हो जायगा कि विजित होने से पहले कलिंग की क्या अवस्था थी |
कलिंग प्रांत का वशन करते हुए चीनी यात्री हनसांग लिखता है---“इस कलिंग प्रदेश की परिधि दो तो (२००) ली है| इसकी राजनगरो बीस (२०) ली है | यह प्रांत खूब उपजाऊ है | यहाँ खेती का काय विधिवत् किया जाता है| यह प्रदेश फल ओर फूलों के वृक्षों से
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अशोक का आरम्भिक जोबन और परिवार कक
गुलजार है। इस प्रदेश में सैकड़ों ली तक विस्तृत फैले हुए मनोरम : बन््य और अरटवी जंगल्ल हैं | यहाँ बड़े-बड़े भूरे हाथी पाये जाते हैं। इन हाथियों की पड़ोसी परदेसों में बड़ी माँग है| जल-वायु सूर्योत्पल ओर तापपूण है | यद्यपि यहाँ के लोग अधिकतर रुत्चष और असम्य हैं, किन्तु वे सत्यवादी तथा विश्वसनीय हैं |” कल्िंग देश का यह वर्णन उस समय का है जब हे नप्तांग ने मारत पय्यंटन किया था। आगे चल कर ह्व नपांग फिर लिखता है--“प्राचीन काल में करलिंग का राष्ट्र
बहुत ही घना बसा हुआ था। यहाँ की अगरण्य ' जनसंख्या थी। यहाँ
के लोगों के कंधे (स्कंघ) एक दूसरे से रगड़ खाते, वहाँ के लोगों के रथों
के पहिए (घुरियाँ) आपस में टकराते थे; अपितु जब वे अपने हाथों की-
आपस्तीनों को ऊपर उठाते थे तो एक संपन्न उपकारिका या खेमा तेयार' हो जाता था | वहाँ एक पाँच आध्यात्मिक शक्तियों बाला ऋषि उच्च स्थान पर समाधि लिये पवित्र मन्त्रों को जपा करता था। अपनी शक्ति . के ज्ञीण होने पर, कलिज्ग के लोगों ने उसका तिरस्क्रार किया | इस
तिरस्कार से क्र्द्ध हो ऋषि ने शाप दिया कि कलिंग की सम्पूर्ण जनता
वृद्ध, बाल, युवा सब विनष्ट हो जायें । इस ढुद्व त्त शाप के फलस्वरूप, .
जानी, भोले, सरल, निरपराध, तरुणी, युवा, बच्चे सब की एक ही गति हुईं | इस प्रकार कलिज्ञ की सम्पूण जनता तिरोधान हो चली |”?
यह दत्त सम्राट के शिलालेख में दिये हुए भयानक हत्याकांड का साक्षी है, अपितु उसी हत्याकांड का उल्लेख करता हुआ-सा सालूम पड़ता है | इन विबरणों से ज्ञात होता है कि कलिज्ग एक सुसंपन्न और समृद्धिशालो प्रांत था | इस देश की जनसंख्या अगशण्य थी। यह प्रांत काफ़ी उपजाऊ था ओर लोग हर्षोत्पल थे | वहाँ के हाथी हृष्ट-पुष्ट ओर स्वस्थ हुआ करते थे | ये हाथी बहुमूल्य थे क्योंकि प्राचीन काल में हाथो सेना की प्रधान शक्ति समझी जाती थी। इन्हीं हाथियों को देख कर सिकनदर महान भी भयात्त हो उठा था। ऐसे समृद्धिशाली
है छं-एप-॑ं, 58. 86०), ५, ॥, 99. 207-8.
करन
३० ह अशोक
देश, विशाल जनसंख्या और हस्तियों के प्रदेश का राजा कैसा शक्तिवान् होगा, इसका अनुमान मेघस्थनीज़ के वर्शन से किया जा सकता है। वह लिखता है---“कऋलिंग-राज के शरीर-रक्षकों में से ६०,००० पैदल, |, १०,००० अश्वारोही ओर ७०० हाथी ये |? (ऋठ87. 7. ५४].) सम्राट के शिलालेख से भी हमको कलिंग की अपार सेना का उल्लेख मिलता है | ११वाँ शिलालेख लिखता है--“अ्रमिषिक्त होने के ८वे वर्ष, देवताश्रों के प्रिय प्रियदर्शो राजा ने कलिंग विजय किया | यहाँ से डेढ लाख मनुष्य बाहर तले जाये गए, एक लाख आहत हुए, और उससे कई अधिक मरे |” हे इस शिलालेख से साफ़ मालूम होता है कि कलिंग की सेन्य की... संख्या बहुत भारी थो-प्रहाँ से डेढ़ लाख आदमी केद कर वाहर ले जाये गये, एक लाख आहत हुए, और जो मरे यदि उनकी संख्या हि आहत होने वालों से तिगुनी ली जाय अर्थात् उनकी संख्या तीन लाख ३ हो तो कुल सेन््य की संख्या होगी 5 १३--१--३ > ४३ लाख | अतः हि प्रकाशित है कि कलिंग जेंसे छोटे प्रदेश के वीर सैनिकों की संख्या, जिसने सबल राष्ट्र के अनोचित्य आक्रमण के विरुद्ध स्वतन्त्रता की आर वेदी पर सहृष अपने प्राणों की आहुति दी, निःसन्देह साढे पाँच लाख - के लगभग थी | कं । , अतः सवथा प्रकाशित है कि कलिंग-राज की विशाल वीर-. । वाहिनी एक प्रवल राष्ट्र की सेना से किसी भी प्रकार कम न थी। किन्तु अब विचारणीय प्रश्न यह है कि अशोक ने कलिंग-राष्ट्र को विजय करने की क्यों ठानी 2. तथा सम्भवतः इसका क्या कारण हो सकता हैं ! इस प्रश्न को श्री भंडारकरजी इस प्रकार हल करते हैं | “कल्षाग सम्राट अशोक को अन्तर-राजनीति (9059ए-907#70) में कंटक-स्वरूप था। १२वें शि्नालेख से ज्ञात है कि आंध्र और परिन्दा के प्रांत अशोक के साम्राज्य के श्रन्तमू त थे | सामान्यतः आंध्र | कृष्णा ओर कावेरी-मण्डल (ज़िले) का प्रदेश था। क्योंकि सम्राद्
है. अली
अशोक का प्रारम्भिक जीवन और परिवार $ “कई
को राजनारी पायलिपुत्र थी, अस्तु यह अनुमान करना असज्ञत नहीं कि वर्तमान बच्ञाल का शुरुतर भाग साम्राज्य के अन्तगंत था। इससे ज्ञात होता है कि (यदि मेरा अनुमान सत्य हो) “परिंदा” सम्भवतः साम्राज्य की पूर्वी सीमा पर, कहीं बद्धाल में था। अतः कलिंग अन्तर- राजनीति म॑ एक कील की तरह -गढ़ा था, जो कभी भी दक्षिण के चोड़-राज्य से गुप्त-मन्त्रगा कर सकता था| अतः राष्ट्र की कुशलता ओर एकीकरण के लिए कलिंग विजय करना परम आवश्यक था, ओर यही सम्राद ने किया भी ।??
किन््त पूबनिर्दिष्ट कारण के श्रतिरिक्त हम इस युद्ध के कुछु और कारणों का अनुमान भी कर सकते हैं। खाराभैल-लेख से मालूम होता है कि कलिंग पहले ननन््दवंशीय राजाओं के अधिकार में था, किन््त जिस समय मोय्य चन्द्रगुप्त ने विद्रोह किया, सम्भवतया उसी समय कलिंग' भी मगध राष्ट्र से स्वतन्त्र हो चला था। अतः कलिंग नन्दवंशीय राजाओं के समय से ही मगध-साम्राज्य का एक अज्ञ था। इसलिए मगध-राष्ट्र के खोये हुए प्रान्त को फिर से उपलब्ध करने की अभि- लाषा ही से संभवतया, प्रेरित होकर अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की थी | अतः प्रकाशित होता है कि मगध-साम्राज्य कलिंग पर अपना स्वृत्व समझता था जिस हेतु उसको असंख्य प्राणियों का रक्त बहाना पड़ा । ... दूसरा संभय कारण कलिंग की उत्तरोत्तर बढ़ती हुईं शक्ति थी। कलिंग एक समृद्धिशाली एवं वीर प्रदेश था। उसकी सेना असंख्य थी तथा वह सब प्रकार उन्नति पर था। अ्रतः मोय्य-साम्नाज्य के लिये उसकी प्रवलता घातक वन रही थी | कलिंग के कारण “मोय्यं-राष्ट्र का एकीकरण होना असंभव था, अपित कलिंग की प्रबलता मौय्य॑-साम्राज्य के लिये घातक थी |
इन्हीं सव कारणों से कलिंग विजय करना आवश्यक था।
किन्तु इस विजय का परिणाम क्या हुआ--यह “धर्म? के अगले
न अशोक
प्रकरणों से मालूम होगा | बस्तुतः यह युद्ध कलिंग विजय समेत “आपध्या- त्मिक? विजय का भी कारण हुआ | इस युद्ध के समय से ही सम्राट का धार्मिक जीवन प्रारम्भ हुआ और अब सम्राट की विजय शस्त्र के अलावा घर्म से चरितारथ की जाने लगी | कलिंग-युद्ध के असर सम्राढ ने कहा था--“मेरीघोष ( भेरीनाद ) अब घर्मघोष में परिवर्तित कर दिया गया है[/#... क् | _ कल्िंग-युद्ध के सिवाय शिलालेखों से हमें किसी अन्य युद्ध का उल्लेख नहीं मिलता है, अतः कलिंग-विजय के बाद सम्राट ने शज्त्रों से विजय करना छोड़ दिया | किन्तु काश्मीसी गाथाओं के अनुसार अ्रशोक ने काश्मीर को भी विजय किया था, किन्तु काश्मीर की विजय तिःसंदेह कलिंग से पहले की है, तथा संभवतया काश्मीर को चन्द्रगुप्त मोय्य ने ही उसे अपने समय में विजय कर लिया था | कलिंग-युद्ध के पश्चात् सम्राद का उत्तराद' जीवन आरम्भ होता है--यह जीवन सम्राद के धर्म-पराक्रम, ध्म-विजय तथा धर्म-प्रचार का जीवन है | यह सब अगले प्रकरणों में लिखा जायगा |
द्लरा अफरणय साम्राज्य की सीमाएँ और विस्तार
इतिहास की थु धली गोधूलि में खड़े होकर हमें अशोक के साम्राज्य . का पता लगाने में, तथा उसकी नियमित सीमाओ्रों को निर्धारित करने में पुन शिलालेख आदि के धीमे प्रकाश को ही हाथ में लेकर चलना पड़ता है | बड़ी ही कठिन समस्या उपस्थित हो झाती यदि सम्राद् अशोक उस दूरस्थ विगत काल से शिलालेखों के माध्यम द्वारा, अपनी . उस पावन वाणी में हमसे बातें न करता--वह वाणी जो अभी भी पाषाणों में जीवित हे ओर हमें दरवीभूत करती है ।
. अशोक प्रतापी मोय्य चन्द्रगुप्त का नाती था, जिसने जेंसा कि पहले कह चुके हैं; जनरल सिल्यूकस के, सिकन्दर की विजयों को पुनर्जीवित करने का उपक्रम विनष्ट कर उत्तरी भारत पर एकक्षत्र शासन स्थापित किया था। इस भाँति मौय्य-राज्य एक सुदृढ़ राष्ट्र था जिसका अधिपति धामिकी अशोक हुआ । उन्हें इसके विस्तार तथा रक्षा के लिये खड़ की शरण न लेनी पड़ी | यद्यपि कुछ सीमाप्रांत स्वतंत्र रहे | और जेंसा कि पहले वर्णन हो चुका है अशोक ने करीब . २६१ ३० पू० केवल कलिज्ञ विजय किया था | इस कलिज्ञ चुद्ध के पश्चात् सम्राद् का नवीन जन्म हुआ | इस युद्ध की भीषणता से सम्राट् दुखित हो चले। उन्होंने तत्पश्चात् बुद्ध के कल्याण-मागं का अनुसरण किया | तथा इसके बाद उन्होंने धम-विजय आरम्भ की । उस धर्मविजयी सम्राद् का साम्राज्य कहाँ तक निश्चय रूप से फेला / छुआ था, इसी विषय की हम इस प्रकरण में यथासंभव पूर्ण रूप से
_ विवेचना करने का प्रयत्ञ करेगे | ३
३४ ग्रशोक
प्रथम अशोक के राज्य का विस्तार हम शिलाभिलेखों तथा स्तम्भों
सीमाओं का ज्ञान होता है | एक तो जिन जगहों पर वे पाये जाते हैं, (अथोत् शिलालेखों और रतंभों के भौगोलिक विभाजन से ही) तथा जो उनमें लिखा है (उससे), (अर्थात शिल्षा और स्तंभों की लेखमाला से) । इन दो आधारों पर हो हम उनके साम्राज्य का विस्तार मालूम कर सकते हैं ।
शिलालेखों आदि के भोगोलिक बँट्वारे का निदर्शन करने के लिये प्रथम उत्तर से ही चलिये | उत्तर की ओर चतुदंश शिलालेख की तीसरी प्रति हमें कालसी नामक एक गाँव में उपलब्ध होती है। कालसी यह देहरादून जिले के अंतभूत है। यह गाँव चकरौता के
यमुना अपने जन्मदाता हिमालय की गोद से बिदा लेती है । पश्चिम की ओर चलते हुए हमें चौथी ओर पाँचवीं दो प्रतिरयाँ उपलब्ध होती हैं। इनमें से एक प्रति 'मानसेरा? में पाई गई है । यह मानसेरा, ऐबोटाबाद से १५ मील की दूरी पर उत्तर की ओर इज़ारा ज़िले में है | दूसरी “प्रति? पेशावर जिले के शाहबाजगढ़ी नाम के स्थान पर पाई गई है | शाहबाजगढ़ी पेशावर के उत्तर-पूव में चालीस मील
पर पहुँच कर, हमें एक ओर “प्रति! गिरनार या जुनागढ़ के समीप सोराष्ट्र (काठियावाड़) में मिलती है | ये लेख सुरम्य झील के ऊपर एक पाषाण पर खुदे हैं| यह कौल 'सुदशना” झील के नाम से प्रख्यात है। रुद्रदामन के लेख से ( १५० ई० ) विदित है कि यह मनोद्दरी भील जुनागढ़ के समीप रैवा तक और ऊरायत पहाड़ियों पर पालासिनी
तथा श्रन्य नदियों के पानी को रोक कर, मोय्य-राजाओं से निर्मित की.
थी।
के भौगोलिक विभाजन से मालूम करते हैं| ये शिजामिलेख समस्त भारतवष में मिलते हैं | शिज्ञाभिलेखों द्वारा हमें दो तरह से राज्य की.
रास्ते में पड़ता है | यह प्रति उसी जगह पर पाई गई है, जहाँ पर से
की दूरी पर है | यहाँ से दक्षिण की ओर घुड़ते हुए, पश्चिमी किनारे
3. 0४#॥४७४४७४७४एए
साम्राज्य की सीमाय ओर विस्तार ३५ . दूसरी प्रति सोपारा, थाना ज़िले में मिली है । सोपारा बम्बई के सेंतीस मील (३२७ मील) उत्तर की ओर है। चतुदंश शिलालेखों की एक दूसरी “प्रति? हाल ही में, मद्रास-प्रांत में कुरनूल' जिले के, एरागुढ़ी (४०००5०पठी) नामक स्थान पर उपलब्ध हुईं है | दूसरा शिलालेख हमें घोली में प्राप्त हुआ है । घोली पुरी ज़िले में भुवनेश्वर के पास स्थित है| एक अन्य प्रति जोगुडा में मिली है | जोगुडा, गंजाम ज़िले में ऋषिकुल नदी के ऊपर अवस्थित है | इनके अलावा गोण शिलाभि- लेखों की प्रतियाँ उत्तर मेंसूर के चिहलदु्ग ज़िले में, निम्न स्थानों पर पाईं गई हँ--सिद्धपुर, जतिद्ग, रामेश्वर ओर ब्रह्मगिरी | - जबलपुर के पास रूपनाथ नामक एक तीथ-यात्रा का स्थान है। यहाँ पर भी गौण- शिलामिलेख की एक प्रति उपलब्ध हुई है | बिहार प्रांत के शहसराम नामक स्थान पर भी गोण-शिलाल्ेख की प्रति मिली है | वैराट, जय॑पुर- राजपूताना में भी गौण-शिलालेख उपलब्ध हुआ है। बैराट की एक दूसरी पहाड़ी पर आबरू में भी गोण-शिलालेख की प्रति? प्राप्त हुई है । इसके अलावा निजाम के राज्य में मास्की नामक स्थान पर भी गौण-शिलालेख उपलब्ध हुआ है। इन शिलामिलेजों के स्थानों का निदर्शन कर अब स्तंभलेखों के स्थान का निशय किया जायेगा |
ये स्तंभलेख निम्न स्थानों पर स्थापित किये गये थे--(१) अम्बाला के पास नोपारा में, (२) मेरठ में--कहा जाता है कि इन दोनों स्तम्भों को देइली का सुल्तान फिरोजशाह ठुगल्लक बड़ो कठिनाई एवं प्रयत्ष के साथ देहली ले गया था | इन स्तंम्पों के ले जाने |के हेतु ४२ पहियों की गाड़ो बनाई गई थी प्रत्येक पहिये पर रस्तो-बंधी थी । और प्रत्येक रस्से. को खींचने के लिये दो सौ आदमी तेंनात थे।. (३) तीसरा स्तंभ “कौसास्त्री? में खड़ा किया गया था। इस स्तंभ को संभवतया अकबर कौसाम्बी से हटा कर इलाहाबाद ले गया था। (४) चौथा स्तंभ लौरिया अराराज (चम्पारन ज़िलले के राधिया नामक
३६ ग्रशोक
स्थान पर )। (५) लोरिया नन्दनगढ़ (चम्पारन ज़िले में ही)। (६) रामपुरुवा (चम्पारन ज़िले में) | द
गौण-स्तंभलेखों के स्थान जहाँ वे पाये गये हैं---
(१) बनारस के पास सारनाथ में,
(२) नेपाल के रुमिनिन्दी नामक स्थान में,
(३) निगलिवा (नेपाल की तराई में ) ।
शिलालेखों, गोण-शिलाभिल्षेखों, स्तम्मों और गौण-स्तंभों के इस विस्तृत मोगोलिक विभाजन से स्पष्ट है कि अशोक का साम्राज्य अत्यन्त विशान्न था | उनके शासन-सूथ्य की प्रखर स्वर्णिम किरणों हिमालय के श्वेत मस्तक का अ्रल्िंगन करती हुई समुद्र के अधघरों का चुम्बन लेती थीं । इसी से चतुदंश शिलालेख में सम्राद गौरबता के साथ कहते हैं, “मेरा साम्राज्य अत्यन्त विस्तृत है, और प्रथ्वी (सम्पूण विश्व ) मेरे अधीनस्थ है |” सम्राट का यह कथन निःसंशय अक्षुरश: सत्य है | ।
शिलामिलेखों ओर स्तंभलेखों रिक्त सम्राद के स्तूपों से भी साम्राज्य का विस्तार मालूम होता है |
एक समय सम्राद ने आचाय॑ मोगालिपुत्त तिस्स से पूछा-“भगवान्
के क्या सिद्धान्त हैं १? इस पर मोगाली के पुत्र तिस्तो ने उत्तर दिया । जब राजा को मालूम हुआ कि धर्म के ८४,००० हजार मत या अभिप्राय है--वह चिल्लाया, “में प्रत्येक के लिये एक विहार समपित करूँगा |? चोरासी हजार विहारों के लिये नब्बे हजार (६०,०००
घोड़ ) कोटि खजाना वितरण करते हुए अशोक ने स्थानीय राजाश्रों द्वारा जग्बुदीप के चोरासी हज़ार नगरों में विहार बनवाये | और पाटलिपुत्र (पुप्पहपुर) के अशोकराम? विहार का कार्य अपने आप लिया।' इसी गाथा को फहियान ने दूसरे ही शब्दों में लिखा है, इस
तम्रह्मयवश, प्रकरण ५।.
की
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साम्राज्य की सीमाये और विस्तार ३७
वर्णन के अनुसार “अशोक आउठ स्तूपों (तोप) को नष्ट कर उनकी जगह चौरासी हज़ार (८४,०००) तोप अथवा स्तूप बनाना चाहता था [?१
गाथाये जो कुछ भी कहें, किन्तु अशोक से निर्मित कुछ स्तूपों का अवश्य
पता लगा है | फलत: काश्मीर और नेपाल में श्रशोक- के स्तूपों का पाया जाना इस विषय के प्रमाण हैं कि ये दोनों देश साम्राज्य के अन्तर्गत थे | कल्हण राजतरंगिणी (अंथ १, १०१, १०७) के अनुसार जेसा कि पहले कह आये हैं श्रशोक काश्मीर का सम्राद था | काश्मीर की राजनगरी श्रीनगर का अशोक ने ही निर्माण करवाया था। नेपाल में - भी अशोक ने एक ओर नगर बनवाया था | क् ह् नसांग को काफिस ( काफिरस्तान) में भी झशोक के मिले थे | तथा जलालाबाद (उत्तर-पश्चिम में) और उदयन में भी हनसांग ने अशोक के स्तूपों को देखा था। ताम्रलिपी में भी सम्राट का स्तूप मिला है इससे सिद्ध द्वोता है कि बंगाल भी. साम्राज्य के अंतगत था | ताम्रलिपी (बंगाल) प्राचीन काल्लन में एक प्रमुख बन्दरगाह था | दक्षिण के यात्री बहुधा इसी बन्दरगाह से सामुद्रिक यात्रा किया करते थे | ह नसांग को एक श्रोर स्तूप समाताता की (ब्रह्मपुत्र का डेल्टा) राजनगरी म॑ भो मिल्ला था। इनके अलावा कई अत्य स्तूप,निम्न स्थानों पर पाये गये हैं --
(१) पुण्यवधन ( उत्तरी बंगाल ) |
(२ ) कनसुबंन ( वतमान व्दवान )।
(३ ) वीरभम ( ज़िले में ) ।
(४ ) मुशिदाबाद ( ज़िले में ) |
'थ) चोड़ ( प्रांत )--ह नसांग को यहाँ एक स्तूप मिला था | (६ ) द्रविड़--यहाँ भी ह नसांग ने- स्तूप ( अशोक का ) देखा
था । इन स्तूपों से भी साम्राज्य के विस्तार पर अच्छा प्रकाश पड़ता है |
3[,62808--9. 89
कक ०
रेट का अशोक
महावंश के अनुतार तथा राजनीति के अनुसार भी, जहाँ कहीं स्तूप पाये जाते हैं, उन सब का अधीनस्थ होना अनिवाय है। राजा अपने अधीनस्थ प्रदेशों में ही स्तूप निर्माण करवा सकते थे |. ह
साम्राज्य के विस्तार अथवा राज्य की सीमाओं को निर्धारित करने के लिये शिल्ामिलेखों की अंतरंग साक्षी भी बड़े काम की बस्तु है।
. इन शिल्ाालेखों में अशोक ने अपने समकालीन राजाओं का उल्लेख
किया है | इन लेखों को ध्यानपूवक अध्ययन करने से साम्राज्य का विस्तार पूर्ण रूप से निर्धारित हो सकता है। सीमाओं का निर्णय करने के लिये, द्वितीय, पंचम ओर त्रयोदश शिलालेख प्रमुख अर्थ के हैं। ... ह्वितीय शिलालेख गिरनार लिखता है, “देवताश्रों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने अपने विजित राज्य में तथा अन्य सीमांत प्रदेशों में जेंसे चोड़, पांड्य, सत्यपुत्र ( या सत्यपुतृ ) केरलपुत्र ( पुत ) और ताम्रपर्णी के प्रदेशों में तथा यवनराज एंटिश्रोकस, और अन्य . राजा जो उस एंटीओकस के पड़ोसी राजा हैं ( वहाँ ), ( और ) प्रत्येक जगह दो प्रकार की चिकित्साओ्रों--(मनुष्यों. की चिकित्सा और पशुओ्रों की चिकित्सा) का प्रबन्ध करवाया है |?!
पंचम शिलालेख मानसेरा में महामात्रों का उल्लेख करते हुए सम्राद कहते हैं, “विगत काल में धममहामात्र न नियत किये जाते थे ( नथे )। किन्तु अभिषिक्त होने के १३वें वषर मेंने धर्ममद्दामात्रों को नियत किया | वे सब सम्प्रदायों ( धर्मों ) में धर्म की स्थापना और उन्नति के लिये नियत हैं | वे घर्मगामिन् लोंगों के. सुख ओर भलाई
के लिये नियत हैं | वे यवन, कम्बोज, गांधार, राष्ट्रिकों, पेठानिकों तथा .
पश्चिमी सीमा-प्रान्त (के लोगों) या (अपरन्ता) के अन्य लोगों के लिये नियत हैं । वे भट और दास वेतनभोगी नौकरों, ब्राह्मण, साधु और गृहस्थों, असहायों और जीण बुड॒ढों की भलाई ओर सुख के लिये नियत हैं। तथा धर्मानुगामिन लोगों की रक्षा के लिये नियुक्त हैं |?
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साम्राज्य की सीमायं ओर विस्तार ३६
त्रयोदश शिलालेख शाहबाजगढ़ी लिखता है--
“ऐसा कोई जनपद नहीं है जहाँ ये वण (जातियाँ ) न पाई जाती हों। जेसे ब्राह्मण, श्रमण, साधु सिवाय यवन जनपद के | ऐसा कोई जनपद नहीं है जहाँ के मनुष्यों की किसी न किसी धर्म में प्रीति न हो । कलिंग ( युद्ध ) में जितने लोग आइत हुए, निधन किये गये, ओर बन्दी बनाये गये, यदि उनका सो्वाँ या हजारवाँ भाग भी यदि आहत किया जाता, निधन किया जाता या बन्दी बनाया जाता, तो आज यह देवताओं के प्रिय को असीम दुःखदायक होता। देवताश्रों के प्रिय का मत है कि जो बुराई करे उसे भी यदि हो सके तो क्षमा किया जाय। जो वननिवासी देवतागशओं के प्रिय के विजित राज्य में हैं, उनको भी वह मनाता है और घमे-मार्ग पर लाना चाहता है कि जिससे देवताश्रों के प्रिय को पछुतावा न हो, उन्हें यह बता दिया गया है कि देवताओं के प्रिय के पछुतावे भें कितनी शक्ति है। जिससे वे अपने दोषों पर लजित हों ओर नष्ट न हों (मारे न जायें)। देवताओं का प्रिय सब जोबों अक्ञति, संयम, समता ( अपक्षपात ) ओर आनंद का अभिलाधी है | जो धर्म-विजय दे ( वही ) उसे ही देवताओं का प्रिय अच्छा समझता है| यह विजय ( घमम-विजय ) देवताओं के प्रिय को यहाँ (अपने विजित राज्य में) तथा सब॒सीमान्त प्रदेशों में छः सो योजन तक जहाँ यवन-राज अन्तियोकस तथा अन्य चार राजा, टालिमी, ( तुरमय ), अन्तिगोनत ( अन्तिकिन ), मग तथा अलिकसुदर ( के राज्य ) हैं, तथा नीचे ( दक्षिण की ओर ) ( जहाँ ) चोड़, पांड्य, तथा ताम्रपर्णी हैं ( यह धर्म-विजय ) प्राप्त हुईं है |”?
इन शिलालेखों से हमें दो प्रकार के राज्यों अथवा राजाओं कां पता लगता है। इन दो प्रकार के राज्यों में से कुछ राज्य ( राजा ) साम्राज्य की सीमाश्रों पर थे। ये राज्य बहुधा स्वतंत्र वा अद्ध -स्वतंत्र थे। अन्य राज्य वे थे जो विजित होने से साम्राज्य में सम्मिलित थे। शलाभिलेखों में अशोक के समकालीन निम्न राजाओं का नाम दिया
४० अशोक
गया हैं--(१) ठरमय ( टालिमी ), अन्तिगोनस ( अन्तिकिन ), मग, अलिकसुदर । ये राजा ख्तंत्र ही थे; इन्हें अशोक के अधीनस्थ न लेना चाहिये |
पाप्राज्य को दक्षिणी सीमा पर निम्न राज्य थे--(१) चोड़, (२) पॉड्य, (३) सत्यपुत्र ( सत्यपुत ), (४) केरलपुत्र (केरलपुत) और (५) ताम्रपर्णी के राज्य । अशोक ने स्वयं इन राज्यों को सीमान्त कहा है, ञ्रतः ये राज्य साम्राज्य से अलग स्वतंत्र राज्य ही थे | (१ शवाँ प्रशापन)
११वें शिन्ञालेख शाहबाजगढी में निम्न राज्य--यवन, कम्बोज, भोज, पितनिक, आंध्र और पुलिंद*--साम्राज्य के अन्तभूत दिये गये हैं | किन्तु पंचम शिलालेख में इन्हीं को ( राज्यों को ) पश्चिमी सीमा पर अवस्थित बतलाया गया है | द
. साम्राज्य के विस्तार को व्यवस्थित रूप से निर्धारित करने के लिये इन उपरोक्त यवन ( बेदेशिक ) राज्यों के निर्दिष्ट स्थान का ठीक-ठीक निश्चय करना आवश्यक है। प्रथम यवन-राज्यों को ही लीजिए। ये यवन कोन थे तथा उनके राज्य कहाँ-कहाँ पर थे | यही प्रथम हभको हल करना है| यवन, ये लोग यूनानी (यूनान के (७७७८४) थे यह क् तो निश्चय ही है, परन्तु उनके राज्य किन-किन स्थानों पर थे, यही हमको देखना है | एक वात कम से कम सम्राट् के १३वें शिलालेख से स्पष्ट ही है कि वे साम्राज्य में सम्मिलित थे | अतः वे. साम्राज्य के किस भाग पर स्थित थे ? क्योंकि निःसन्देह साम्राज्य के अंतर्गत होने से, यह सत्य ही है कि वे ग्रीक या सी रिया के यवन न होंगे | इन
यबनों के विषय में श्री आर ० के० मुकुर्जो लिखते हैं---''ये यवन निश्चय
हो यूनानी होंगे | आयोनियनूस ( 0फां9578 ) जो अशोक. “7++--६६+- |
. इन राज्यों का मह्यभारत में भी उल्लेख आया हं--महाभारत शांतिपरव ६५ अध्याय, १७ इलोक्ष--यवना. . गान््धारा, . .छवास्चास्थ भद्गरका: (आस्थ्र )
पुलिन्दा, काम्बोजा, . .......
जन
ज्ख्ल्ल््ल्ज्ज्ज्ि 5:
कर 23502 “के _ >> क५2->मनननननमनन--म-नननन-न+ बलन-नननननीनी नीनानयननय-+ 333 >.-3>.>.>.+>
साम्राज्य की सीमायें और विस्तार
के साम्राज्य के अपरन्ता प्रान्त में बस गये थे। उनके निर्ष्ट स्थान
का अनुमान कम्बोजों के उ्मीपस्थ किया जा सकता है, जिनके साथ शिलालेख में उनका समागस किया गया है| मनु भों यवन और कम्बोजों का साहचय स्वीकृत करता है | कम्बोज काबुल नदी पर अवस्थित थे, तथा यवन भी | यह यूनानी उपनिवेश जेसवाल द्वारा निपुणता के साथ नीसा के सीयी-स्टेट ((५४ए 5]59 ०7 'पएडव) से तुलीकृत (मिलाया गया) किया गया है | सिकन्द्र ओर उसकी सैन्य को, हैलेनिक-रीति-रिवाजों को देख कर, नीसा में घर की अनुमूति मालूम हुईं थी । नीसा के अधीश का नाम ग्रकौभी (8६००४) था, इस
नाम की उत्पत्ति काबुल नदी के वेंदिक नाम कुभा से है। लेसन
( [,28887 ) ने इसको इंड्स (]9008) के किसी पश्चिमी प्रांत से, मिलाया है, जिसे सिल्यूकस ने (सन्धि में) अशोक के पितामह च्द्रगुप् को प्रदान किया था | एक बात का और ध्यान रखना चाहिये कि यवन-रथा (४०४७०-७४(४४) (यवनों का प्रदेश) उन प्रदेशों में से एक था, जहाँ महावंश के अनुसार अशोक के नेतृत्व में की गई तीसरी बौद्ध सभा द्वारा एक बौद्ध-मिसनरी ( बोद्ध-धर्म-प्रचारक-सं थे ) भेजी गई थो। कैरियस् ( (2,5५७ ), :डेरियस् ([)8प08) और जरकसीज ( ॥७/5५४४ ) के समय में ही, तथा जब परशिया के साम्राज्य और हेलास [ ७67 >छ/जप्857 +796 ?७/४+१7० 077[078 ठा7ते &७]]58 ) के मध्य युद्ध हुआ था, तभी यवन, अ्रयोनियन्स या ग्रीक लोग अपने देश को छोड़ कर इधर चले आये थे | भारत की सीमा के बाहर इनका प्रथम उल्लेख पाणिनी के यव- नानी-लिपि ([५--49) और मज्जीहिमा निकाबा (वा) पहतए8) के उद्धरण से मिलता है |?!
“यवन--उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रान्त पर जो यवन ( श्रीक ) वत्त
गये थे | कुछ लोग इस पद में गुजरात में बसे हुए शक आदि को भी
2 7, (00६७-७७, / 830]79---070. 406
४र...ः अशोक
ग्रहण करते हैं | किन्तु गान्धार और कम्बोज के सान्निध्य से, तथा उस बात से कि गुजरात ,साम्राज्य का अंग था--यद्द ठीक नहीं जान पड़ता |” (अशोक को घधर्मलिपियाँ--काशी नागरी-प्रचारिणी-सभा) |
१३वं शिलालेख में सम्राट कहते हैं---“कोई ऐसा प्रदेश नहीं है जहाँ ब्राह्णण और श्रमण आदि सम्प्रदाय न हों, सिवाय यवनों (यवन- जनपद) के [? इस उद्धरण से मालूम होता है कि इन यवन -प्रांतों पर आय्य-समभ्यता और संस्कृति का अधिक प्रभाव न था तथा ये लोग हेलनिक-सम्यता ([9]]279[0 ठंप्ा)25700) अर्थात् यूनानी सभ्यता के पोषक और उपासक थे |
पुनः पाँचवाँ शिलालेख मानसेरा लिखता है, “वे (महामात्र) यवनों, कम्बोजों, गांधारों, राष्ट्रिकों, पैठानिकों तथा पश्चिमी सीमा-प्रांत
में रहने वाले लोगों या अपरन्ता के अन्य लोगों के लिये नियत हैं |?” इस पद से सवशः सुप्रकाशित है कि शिलालेख में वर्शित यवन-जनपद
श्रथवा राज्यों से अ्रभ्िप्राय यूनान या सीरिया के यवन-राज्यों से नहीं है, अपितु, ये राज्य भारत की सीमा पर, यूनानियों से बसाये गये उपनिवेश थे | यूनानियों से उपनिवेशों का बसाया जाना बहुधा पाया जाता है। हलनिक (!76]]270) सम्यता को विकीण अथवा प्रस्फुटित करने के उद्द श्य से जगह-जगह प्राचीन यबनों द्वारा उपनिवेश बसाये गये थे । इस रूप सें मिश्र का उपनिवेश अग्रगण्य है--यहाँ पर यूनानी सभ्यता को यथेष्ट रूप से उत्कष मिला था । प्रसिद्ध भूमितज्ञ अथवा रंखागणितज्ञ युकुलिड (>प०43) यहीं पर हुआ था । द आश्वलायन से उच्चारित बुद्ध भगवान् के निम्न वाक्य, “क्या ठुमने सुना है कि यवन, कम्बोज ओर दूसरे सीमा-प्रांतों में केवल दो वश अथवा सामाजिक वर्ग हैं, आय (विशिष्ट-वर्गं) और दास (नौकर), और आये दास हो सकता है तथा दास आय बन सकता है |? इस विवरण से स्पष्ट है कि बुद्ध ओर आश्वलायन के आद्य काल से ही तथा सिकन्द्र के आक्रमण से कई व पूब, यवन, कम्बोज आदि लोग
साम्राज्य की सीमायें ओर विस्तार
उपनिवेश बना कर भारतीय सीमाओं पर आ बसे थे | ये लोग भारतीय : संस्क्षति से अछूते रहे | भारतीय सभ्यता का उन पर कोई प्रभाव न पड़ा | तथा इस उद्धरण से यह भी मालूम होता है कि यवन, ओर कम्बोज दोनों समीपवर्ती प्रांत थे। यवन ओर कम्बोजों का साहचय्य, दोनों शब्दों का साथ ही प्रयुक्त होने से स्पष्ट है।.
श्री भंडारकरनी इस बात को अंगीकार करते हैं कि सिकन्दर के
आने से पहले ही यवन लोग, कोकिन और इंड्स नदी के मध्य उप- निवेश स्थापित छर रहा करते थे | यंवन शब्द की उत्पत्ति ट योनियन ([0मं57) है। आयोनियन जाति ही सवप्रथम व्यापारियों के रूप । में बाहर निकली थी | परशियन लोग इन्हें यवन कह कर पुकारते थे, तथा पीछे जो ग्रीक लोग आये उन्हें भी ये लोग यवन ही कहने लगे। क्योंकि यदि यूनानी लोग सिकन्द्र के साथ दी आये होते तो उन्हें यवन | ([0797578) न कहा जाता । क्योंकि वे आयोनियन्स ([09स्9779) ' ने थे | फलतः यदि यवन लोग कोफन ओर इंडस के मध्य में रहा करते थे, तो वह प्राचीन ऊाह-जिसके अवशेष शाहबाजगढ़ी के निकट, जहाँ पर अशोक का एक शिलालेख मिला है, तथा जिसे हू नसांग पो-लु-शा (?०-,७-5४3४) लिखता है अशोक के बाहरी प्रांतों का प्रमुख स्थान था | अतः यवन साम्राज्य उत्तर-पश्चिमी भाग में, कोफन और इंड्स के मध्य, कग्बोज ओर गान्धार के समीपस्थ था |
कम्वोज और गान्धार--कम्बोजों का प्रदेश यवनों के पास ही स्थित था | यह हम मालूम कर ही चुके हैं | जहाँ कहीं भी महयभारत, बुद्ध के वार्तालाप तथा शिलालेखों में-सभी जगह यवनों, कम्बोजों ओर गान्धारों का साथ ही उल्लेख दिया गया है| इन विवरणों से तीनों का सान्निध्य ओर साहचये स्पष्ट विदित होता है । जमेन विद्वान हुल्स-- कम्बोजों ओर गांधारों को-यूनानी, काबुली तथा उत्तर-पश्चिमी
४४ . अशोक
'ज्ाबी कहता है | इस बृत्त से भी यवनों और कम्बोजों का सान्निध्य प्रकट होता है | द द | काशी नागंरी-प्रचारिणी-सभा से प्रकाशित अशोक की धर्मलिपियाँ संयम खंड, पृष्ठ ५१ नो:--६, गांधार और कम्बरोजों के प्रति निम्न उल्लेख देता है, “भ्ांधार, कंम्त्रीज--पूर्वी अफगानिस्तान से सिंधु ने तक के पश्चिमी हिमालय और पश्चिमोत्तर पंजाब के बासी जिनकी भाषा कहाँ-कहीं ईरानी सी थी-बरतमान कंदहारी और काबुली |? कम्प्रोजों के बारे में श्री भंडारकर लिखते हैं-- हक “द्रोशपब में कम्बोजों की राजनारी राजपुर कानाम आया है । यदि वह राजपुर हनसांग से वर्शित “हो-लो-शी -पू-लो” है, जिसको कनेवम ने काश्मीर के दक्षिणी भाग पर अ्रवस्थित राजौरी ठीक ही. स्वीकृत किया है, तो कम्बरोजों का प्रात ठीक तौर पर निश्चित किया >। तकता हूं। अतः कम्बोजों का प्रांत राजौरी के ही आस-पास था तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमा-प्रांत का हजारा ज़िला भी इसी में मिला डैला था। इसके अलावा “मानसेरा” भी जहां पर अशोक के चतुदश शिलालेख की एक प्रति प्राप्त हुई है, इसो कम्बोज-प्रदेश के अंतर्गत
. रहा होगा |? इन सब बविवरणों से सवथा स्पष्ट है कि कम्ब्ोज यवनों के
पास ही अवस्थित थे | इनका प्रदेश उत्तर-पश्चिमी सीमा पर था । तथा संभवतया ये लोग, काबुन्नी, गांधारी, और उत्तर-पश्चिमी पंजाबी तथा काश्मीरी थे | |
नाभक, नाभपन्ति, या नाभसाक के नाभपन्ति, इनके प्रति बुल्लेर वेब पुराण से एक उद्धरण देता है | इस पद् में नाभकपुर नाम के रुक नगर का उल्लेब शआ्राया है| यह नगर उत्त रा-कुसुओं के अधीन था | इस विवरण से अनुमान किया जा सकता है कि नाभपंति या नाभक लोग उत्तर-पंश्चिम में बसी हुई, हिमालय की कोई जाति थो। ये लोग कम्बोजों के पड़ोसी थे | पाँचवे' शिलाभिल्लेख मानसेरा में नाभाक की जगद्ट गान्धार आया है, किन्तु १३वें शिलामिलेख में नाभाक---
हा ऊआयाब्ल्लॉए पिच ++++-33+ललतन -++४+०-७-२५८ ७+-++-+ २ -+.+ व स+ >> >> 3 2 आजआ जज 4 >पजिक 4 ४:
साम्राज्य की सीमाये ओर विस्तार हब
कम्बोज ओर पितनिक के मध्य आया है | अतः श्री भंडारकर का कहना है कि “इसी हेतु हमें नाभपंतियों को एक ओर यवन और कम्बोजों के मध्य में और दूसरी ओर भोज तथा पितनिकों के मध्य स्थित करना चाहिए |? फल्लतः नाभकों का प्रदेश उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेश और भारत के पश्चिमी तट के मध्य कहीं पर था | राष्ट्रिक-पैठानिकों के बारे में भंडारकर निम्न उल्लेख देते हैं-- “अ्रन्तुर निकाय में राष्ट्रिक-पेठानिकों को गोण शासक के रूप में , दिया गया है | इस शब्द का अथ--“वंशक्रमानुगत या मारुसी अ्रथवा जो निज सत्व का अधिकारी है”?--से किया गया है | अतः शिलालेख के राष्ट्रिक-यवनिकों को सम्मिलित रूप में ही लेना चाहिए। राष्ट्रिक ओर पैठानिक अलग-अलग दो शब्द नहीं हैं। राष्ट्रिक पैठानिक का अथ हे-वह जो किसी राष्ट्र या प्रान्त का वंशक्रमानुगत (पितृक्रमागत) उत्तराधिकारी अथवा शासक है। हो सकता है कि आद्य काल से उसका पूवज किसी सम्राट द्वारा शासक (अधिपति) नियुक्त किया क् गया हो | भारतव५ में ऐसे शासकों की कमी न थी | दक्षिण के लेखों 9 मालूम होता है कि वहाँ पर ऐसे कई सामनन््त या शासक थे | इन्हीं को महारठि भी लिखा है। बम्बई के थाना ओर कोलाबा जिलों तथा पूना के आस-पास के स्थानों पर ये सामसंत ओर महारठि शासन करते ये | ११वें शिलालेख के भोज-पितनिक ओर पाँचवे' शिलालेख के राष्ट्रिक भी इसी प्रकार के शासक थे |? हुलस लिखता है कि राठि, राष्ट्रि से अ्रभिप्राय कठियावाड़ के लोगों से है | क्योंकि रुद्रदासन के जुनागढ़-लेख्य में उसके शासक ((3०- . ए877007) का नाम राष्ट्रीय (२२४।४४ए०) दिया गया है | द किन्तु श्री मंडारकर के मतानुसार पितनिक किसी राष्ट्र विशेष से अभिप्राय नहीं रखता | अपितु उसका अर्थ वंशक्रमानुयायी (उत्तरा- धिकारी से) से है जो भोज और राष्ट्रिकों के आगे विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु यह धारणा कुछ कमज़ोर-सी मालूम होती है
डं
दी)
अशोक
क्योंकि हमें विभिन्न प्रकार के पितनिक्रों का संदर्भ, जेसे--राठिक-पिति- निकान, ओर राठिक्ानाम-पितनिकानं, तथा ११वें शिलामिलेख में सयुक्त भोज-पितनिकेतु ओर पितिनिकेपु मिलता है । बुलेर ने “विदस?? को भोजों का प्रदेश कहा है| किन्तु हुल्स उनके प्रदेश को कहीं पश्चिम की ओओर स्थित कहता है। भोजों का एक सम्राट काश्मीर के राजा का समकालीन था, जेता कि कल्हण लिखता है। संभव है कि कोशल् . ओर महाकोशल की तरह राष्ट्र और महाराष्ट्र भी रहे हों। यद्यपि राष्ट्रअब केवल शिलालेख में ही अवशिष्ट है| अलवर का एक हिस्सा अभो तक राठ कहलाता है। तथा काठियावाड़ और मालवा का मध्य-माग भी राठ कहलाता है। सीमाप्रांत में तथा उत्तर गढ़वाल में भी राठ आरट्रु जाति पाई जाती है, किन्तु इनसे यहाँ पर कोई तात्यय्य॑ नहीं है। क्योंकि पैठानिक से अमिप्राय गोदावरी के तट पर स्थित प्रतिष्ठानपुर से है (बुलेर)। अतः ये नाम उन जातियों के हैं। संभवतया ये जातियाँ महद्दाराष्ट्र (दक्षिण) के पड़ोसी प्रदेशों में रहती थीं | ये लोग अशोक के शासन में पूण रूप से सम्मिलित न थे |"
अपरन्ता--संस्कृत साहित्य में, पश्चिमी भारत के लिये, राशि रूप में प्रयुक्त हुआ मालूम पड़ता है। पुराण में भारतवर्ष के निम्न पाँच भाग किये गये हैं--(१) मध्यदेश (मध्यसारत (797/78) शरद), (२) उदीची (ए०७४॥), (३) प्राच्य (पूरब), (४) दक्षिणापथ (दक्षिण) और (५) अ्रपरन्ता ( पश्विम )। इन पाँच विभागों को
व्य-मीमांसा इस प्रकार देती है--- (१) पूरबदेश--वाणारसी से पूर्ववर्ती प्रदेश |
(२) दक्षिणापथ--माहिशसति से दक्षिण की ओर विस्तृत
(फैला हुआ) प्रदेश । द ष
"दक्षिण में आन्च ओर सत्तवादन काल के लेखों में महा-रथी और महा- भोज सामन्तों के रूप में उल्लेखित किये गये हैं।
साम्राज्य की सीमायें और विस्तार ७
(२) उत्तरापय--.प्थुदाका के उत्तर ओर या थानेश्वर के पश्चिम का प्रदेश |
(४) अन्तवेदी--मध्यदेश, विनासेन और प्रयाग, गंगा और यमुना के मध्य का प्रदेश | द
(५) पाश्चात्य देश--पश्चिमी प्रदेश,जिसे पुराणों में अपरन्ता कहा गया है जितके अन्तमू त निम्न प्रदेश दिये गये हैं--देवसभा, सौराष्ट्र, दासरका (मालवा), भावन, भ्गुकच्छु, कच्छछीया, आनत्ता (गुजरात) अरबुदा (आबु पहाड़ के पास), यवन आदि ! इस यवन आदि से मालूम होता है कि सम्राट के शिलालेख में आये हुए---बवन, कम्बोज, गान्धार, राष्ट्रिक, पितनिक सभी अपरन्ता के अन्तगंत थे। पाँचवाँ शिलालेख मानसेरा इत पक्तु की पुष्टि करता है | यह शिलालेख लिखता है, “वे (घर्ममहामात्र) सब धर्मों (सम्प्रदायों) के लिये नियुक्त हैं। व धर्म की स्थापना और बृद्धि के लिये हैं तथा धर्मगामिन लोगों के सुख और हित के लिये हैं | वे यवनों, कम्बोजों, गांधारों, राष्ट्रिकों, पैठानिकों, ओर जो कोई भी पश्चिमी सीमा-प्रांत या अपरन्ता के लोग हैं उनके (हित और सुख के लिये ) लिये नियत हैं |” अतः यवन, कम्बोज अ्ादि लोगों का प्रदेश पाश्चात्य प्रदेश अथवा अपरन्ता के नाम से विख्यात था | महावंश के अनुसार इस अपरन्ता को, तीसरी बोद्ध महासभा द्वारा, एक धर्म-मिसनरी (बोद्ध-घर्म-प्रचारक-संघ) भेजी गईं थी | पालि साहित्य के अनुसार अपरन्ता की राजनगरी शुरपराका वत्तमान थाना जिले का सोपारा, जहाँ पर चतुदश शिलामिलेखों की एक प्रति मिली है, थी | श्री जबसवाल ने अपरन्ता और अनन््ता दो विरोधी शब्द लिये हैं --उनके अ्र्थानुसार “अन्ता” साम्राज्य के अंतभू त लोग थे और “अ्रपरन्ता” वे लोग थे जो साम्राज्य के बाहर बसे थे | कोटिल्य
अथंशासत्र शाम-शास्त्री प्रकरण दो २, ४०, “पश्चिमी प्रदेशों के हाथी
अथवा अपरन्ता के हाथी, मध्यम प्रकार के होते हैं |! अ्रतः कोडिल्य पश्चिम भारत के लिये अपरन्ता का प्रयोग करता है| इसी गअ्ंथ भाग
लाला 55: 5 ५ *«
हक फेक लकांनगका कम क 2. मकर फजन8, ०7७ आओ ० ५
च्औक
इंप . अशोक
२ के २४वें प्रकरण में वारिष का उल्लेख करते हुए कहा गया है, “जज्जल-प्रदेश में वर्षा का नाप १६ द्रोण है, जल्ाद प्रदेशों (अनुपानं) में इससे आधा अधिक, और जो मुल्क (प्रदेश) खेती के योग्य हैं (वहाँ २४ द्रोण), आसाम का प्रदेश में १३३ द्रोण, अवन्ती में- २३ द्रोण ओर पश्चिमी प्रदेशों (अपरन्ता) में बहुत ज्यादा पानी बरसता है।?” ११६,. भाष्यकार शास्त्री ने अपरन्ता को “कोनकन?” प्रदेश से
मिलाया है।
अपरन्ता को पश्चिंसी सीमांत प्रदेश के रूप में लेना चाहिये | गिरनार शिलालेख में यह पद दिया गया है, “इध राज विसयस्हि यो? अर्थात् “जो राज्य (राजा) साम्राज्य के अंतगत हैं, किन््ठ॒ पू्ण शासन में
नहीं |” दूसरे शिलालेख में इन (अपरन्ता) के लिये 'विजितसि? आया
है-“सवता विजितसि देवानां पियसा पियद्सिता लाजिने”?। अतः
- संभवतया “अपरन्ता? पश्चिमी सीमांत प्रदेश के यवन ग्रीक आदि थे,
ये सम्राट अशोक के पड़ोसी राज्य थे, जिन्हें १३१वाँ शिलालेख साम्राज्य के अंतगंत कहता है, किन्तु जो पॉचव शिलालेख के अनुसार स्वतंत्र सीमांत प्रदेश कहे गये हैं | इसी अपरन्ता का एक यूनानी तुहसाष्पा सम्राद् अशोक के गिरनार-प्रांत का शासक ((+#0ए७०४००) था।"
: मालूम पड़ता है कि अपरन्ता के लोग सम्राद के प्रभुत्व का आदर
'करते थे, स्वतंन्त्र रहते हुए भी वे अ्रशोक के लोहा को मानते थे, तथा उनकी भव्य शक्ति को देख कर भयभीत थे | ये लोग हमेशा सम्राद के स्नेहा मिलाषी थे | अत: ये लोग सम्राद के अ्रधीनस्थ (विजित, १शवाँ
'शिलालेख) थे | किन्तु सम्राद से उनको पूण स्वतंत्रता प्रात्त थी । अशोक उनकी राजनीति आदि में हस्तक्षेप न करते थे; फलतः विजित होते हुए
भी वे स्वतंत्र सीमांत पड़ोसी गरान्त थे | देखिए कलिंग शिलालेख द्वितीय “सीमांत प्रदेशों के प्रति मेरी यही इच्छा है कि वे सम कि सम्राद को
अमभिलाषा है कि वे मुझसे भय न खायें, किन्तु मुझ पर विश्वास रखे
रततीृ'0870877'8 475077807--799, .[700, ७।], 09. 40-77,
नी +................. नील नननन+-+० ६...... न्ब्न्श्गण
8-०४ «७. -है+- 3०-नसे- 3०-4५... लक से नाक --+3०५4८ 2 कर्जन्फबल्क ता काली +- ७ 2 7 हम रा 223 कक 2 रे + ३ मे हक 8, “बडे
साम्राज्य की सीमायें ओर विस्तार स्य
कि उन्हें मेरे द्वारा सुख द्वी मिलेगा दुःख नहीं, वे यह भी समझ लें कि जितना वह उन्हें क्षमा कर सकता है वह क्षमा करेगा, कि -वे मेरे द्वारा धर्म पर चलने के लिये प्रोत्साहित किये जायेंगे, जिससे वे इस लोक ओर परलोक दोनों का सुख लाभ कर सके |” इस बृत्त से सम्राद् की सीमांत-नीति (7४07767 90]2फए) प्रत्यक्ष सुप्रकाशित है । आन, कृष्णा ओर गोदावरी नदी का मध्यवर्ती प्रदेश, वर्तमान आन्भ्र, आन्यधों का निवास-स्थान (प्रांत) था | किन्तु .आस्मों का यही
मूल स्थान था, इसका निर्णय करना कठिन है। मौय्य राजाओं के
समय में उनका कोन-सा प्रांत था, इंसका निर्णय निश्चयात्मक रूप से नहीं किया जा सकता | बुद्ध-जातक के अनुसार तेलवाहा नदी पर स्थित आन्प्रपुरा, आन्धर की राजनगरी थी | श्रीभंडारकर ने इस तेलवाह्य नदी को तेल या तेलगिरी नदी से मिलाया है | ये नदियाँ मद्रास और मध्य- प्रदेश की सह-सीमाओं पर बहती हैं। “फलतः प्राचीन आशन्ख-प्रान्त में-जेपुर, मद्रास-प्रेसीडेन्सी, विजिगापट्टम के ज़िलें, तथा मध्य-प्रदेश के निकट्वत्तीं ज़िले (प्रान्त) सम्मिलित थे। तथा सम्भवतया आन्म के अन्तर्गत निज़ाम के राज्य का दक्षिणी हिस्ता ओर बतंमान तेलंगाना के अनुरूप कऋष्णा ओर गोदावरी के ज़िले भी शामिल थे |?
श्री डाक्टर मंडारकर की इस धारणा का मैं पूर्ण रूप से अनुमोदन करता हूँ | डाक्टर मण्डारकर ने यथाथ ही आन्म का इतना विस्तृत विस्तार सूचित किया है | मेघास्थनीज ने अपने वर्णन में लिखा है कि “मौय्यकाल में आन्य मामूली शक्तियों में से न था । विशाल राष्ट्रों में आन्ध का भी प्रमुख स्थान था| आन्ध का राष्ट्र यदि मोय्य राष्ट्र से अधिक न था, तो कम भी न था | विजयी मौथ्य चन्द्रगुप्त की
विश्वविजयनी सैन्य का यदि प्रथम स्थान था, तो द्वितीय स्थान आन की सेन््य ही आक्रान्त किये थीं |” अतः निश्चय ही आन्ध एक गति विशाल और शक्तिशाली प्रदेश था, जिसका विस्तार कृष्णा
नदी के मुहाने तक था। मौय्यं-साम्राज्य के सूथ्य के क्लांत होने ड ह ह
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भू ० अशोक
पर (ढलने पर), सम्राद अशोक की मृत्यु के पश्चात्, इन आंधों ने, एक शक्तिपूर्ण वेभवशाली राज्य की स्थापना की थी। इस आम्म साम्राज्य ने ४०० वर्ष की दी्घ आयु तक शासन किया |
पुलिन्द--हुल््स इन्हें पूर्वीय कहता है | वायुपुराणं में पुल्लिन्दों
का उल्लेख “विन्ध्यमुलीया” (विन्ध्याचल के नीचे रहने वाली जाति) के साथ आया है। महाभारत में इन्हीं का स्थान “चेदी” के समीपस्थ दर्शाया गया है। आन्म्र ओर पुलिन्दों का शिलालेख में साहचय है, दोनो प्रांतों का साथ ही उल्लेख आया है। इससे मालूम होता है कि आन्धों की भाँति पुलिन्द भी अवश्य पूर्वीय लोंग थे--जैसा हुल्स ने भी कहा है। ये लोग अशोक के साम्राज्य के दक्षिणी-पूर्वी या पूर्वीय भाग पर रहते थे | श्रतः प्रकाशित होता है कि रूपनाथ भी--मध्य-प्रदेश के जबलपुर ज़िले में---जहाँ पर अशोक के गोण शिलामिलेखों की एक प्रति उपलब्ध हुई है, साम्राज्य के अन्तर्गत रहा होगा |
. ये पूब निर्दिष्ट राज्य अशोक के पूर्णतया शासनाधीन न थे, अपितु उन्हें पूर्ण आंतरिक स्वातंत्य प्राप्त था। इनमें से कोई राज्य पूर्ण रूप से स्वाधीन थे तथा किसी को अ्रद्ध-स्वतंत्रता प्राप्त थी। उनकी स्वतंत्रता सनियम थी, सम्राद ने स्वयं इन सीमांत राज्यों के प्रति कहा है, “जहाँ तक वह उन्हें क्षमा कर सकता है क्षमा करेगा |? (कलिंग शिलालेख ह्वितीय) | अर्थात् जब तक ये घर्म-पथ पर चलेंगे स्वतंत्र रहेंगे । इन सीमावर्ती राज्यों का मोय-रांजागण भली प्रकार ध्यान रखते थे। सपम्राद चन्द्रगुत के समय इन सीमांत प्रदेशों की देख-भाल के लिये अ्रन्तपाल नियुक्त थे | कौटिल्य लिखता है,“साम्राज्य की सीमा पर गढ़ निर्माण करवाना चाहिये। ये गढ़ अन्तपाल के रक्षुण में होंगे। उनका काय साम्राज्य के द्वार की रक्षा! करनी होगी।?'
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साम्राज्य की सीमायें और विस्तार
समासत; अशोक के साम्राज्य में समस्त उत्तरापथ तथा पश्चिमोत्तर भाग शामिल था | साम्राज्य के उत्तर-पश्चिम की यह सीमा थी | | हे
अब हमें दक्षिणी साम्राज्य का विस्तार कहाँ तक था, यह निर्धारित करना है। अशोक के शिलालेखों में एक विचित्रता पाई जाती है।वह यह कि चतु॒दंश शिलालेख जब कि वाह्म-प्रान्तों के राजनगर में मिले हैं, गौण-शिलालेख साम्राज्य की सीमाओं पर, जो सम्राद् के निज-साम्राज्य से स्वतंन्त्र तथा अद्ध-स्वतंत्र राज्यों को
थक करते हैं--पाये गये हैं। चतुदंश शिलामिलेखों को दो प्रति (घोली और जौगुडा) दूरस्थ प्रान्त की राजनगरी तोसाली में
उपलब्ध हुईं हे | शिलालेखों की तीसरी प्रति सोराष्ट्र की राजनगरी
अनांगढ़, प्राचीन गिरनार में पाई गई है. चौथी प्रति बंबई के पास
सोपारा में मिली है, किन्त गौण-शिल्लामिलेख, राजनगरियों में नहीं, अपितु सीमांत पर पाये जाते हैं | बहुत से ऐसे घने जंगलों में मिल्ते हैं, जहाँ पर कोई प्राचीन अवशेष तक नहीं पाया जाता | ये गोण- शिलालेख अशोक तथा वाह्म राजाओं के राज्य की सीसाश्रों को दो भागों में विभाजित करते हुए मालूम होते हैं। इन सीमांत थंतों के शासक “अंता” कहलाते थे। अंता संस्कृत शब्द है, अंता 5 प्रत्यन्तेषु, अंत > प्रत्यन्त, -- सीमांत + प्रदेश ( प्रदेशों )। अंता दो तरह के थे, प्रथम वे जिनके राज्य भारत के भीतर ही कहीं पर स्थित थे, ओर दूसरे वे जो भारत के (वाह्म) बाहर थे। देखिए द्वितीय प्रज्ञापन कालसी-- . “सवता-विजनितसि देवान पियसा पियद्सिसा लाजिने, ये च अंता अथा चोडा, पंडिया, सतिपुत्तो, केललपुत्तो तंबपंनि |” द प्रथम श्रेणी के अंतों (अंता>शासक) में निम्न राज्य दिये. हैं--“चोड़, पांड्य; सत्यपुत्र, केरलपुत्र, और ताम्रपर्णी |” यहाँ पर ध्यान रखिए कि सत्यपुत्र और केरलपुत्र द्वितीय प्रज्ञापन (कालसी) में
प्र .... अशोक
एकवचन में, तथा चोड़ ओर पांड्य बहुबचन में प्रयुक्त हुए हैं | इस बहुवचन से सम्राट् का अभिप्राय क्या चोड़ और पांड्य जातियों या मनुष्यों से है ? किन्तु ऐसा होना संभव नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इसी प्रशापन में सत्यपुत्र ओर केरलपुत्र का एकबचन में प्रयुक्त किया जाना इस बात को लक्षित करता है कि सम्राद का अ्पिप्राय यहाँ पर जातियों (मनुष्यों) से नहीं, अपितु राज्यों (शासकों--अंता) से हैं । फलतः अशोक के समय दो चोड़ और पांड्य राज्य थे | टेलिमी ने भी दो चोड़ राज्यों का उल्लेख किया है | प्रथम चोड़ राज्य शेरठाई (507०) था | इस राज्य की ओरथरा राजधानी थी | यह “शोरा” तामिल “चोरा” से समीकृत किया जा सकता है | शोरठाई के लिये शोरनागा भी लिखा है ( योलिमी ) अत: यह शोर-नागा, चोर- [गा भी हो सकता है, अस्तु वह राजा जिसकी राजनगरी ओरथरा थी
नागकुल का होगा । और चूंकि उसका प्रदेश, चोड़ (प्रदेश) था अतः वह चोर > चोड़-नाग हुआ | कनिंज्म ने ओरथरा को त्रिचनापली के समोपस्य उदेपुर से मिलाया है। अ्रतः यही दक्षिणी चोड़-राज्य था |
उत्तरी चोड़-राज्य, वेणीगा ओर ऐडिस््थरोस पहाड़ियों के बीच के प्रदेश में अस्थिरवासी (8078 ४०१४०७०8) शोराई रहा करते थे | आरकेटोस उनकी राजनगरी थी | इस आरकेटौस को आकरट के साथ, मिलाया गया है | शोराई लोग अस्थिरनिवासी (१४०४४७८३१०१४४०७) ये | अपितु वह एक आदिम जाति थी, जिन्हें आय लोग घुणा से--शोर अथवा चोर, ( लूठेरे या डाकू ) कहा करते थे ! अ्रतः निर्धारित है कि दो चोड़ साम्राज्य थे। (१) दक्षिणी चोड़-राज्य, ओर (२) उत्तरी चोड़-राज्य | दक्षिणी चोड़ की राजधानी ओरथरा (उदैपुर) थी और उत्तरी चोड़ की राजनगरी आरकेटोस अथवा आकथ के नाम से प्रख्यात थी |
पांड्य--> लिग्री ने इनके लिये पाणिडनोई लिखा है | पारिडनोई के राजनगर ((75[06)) का नाम मोदोरा, वर्तम।न मदुरा (मद्रास
बज थ ७ आद ८ ब्के, 3 अं हु १७ व न्णन जयकनणन-चक + ० न 09८ -७+ ०-७ ++: व्यदीदी ज्ब्ज न्मयक
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साम्राज्य की सीमायें ओर विस्तार पू्३े
प्रेसिडिन्सी) था | टोलिमी के अनुसार पांड्यों का प्रदेश, दक्षिण में जिनीभेली और उत्तर में काम्बेटर के समीपस्थ पबतीय भूमि तक विस्तृत था | गोलिमी (स्0]७779) ने एक ही पांड्य-राज्य का उल्लेख किया है । किन्तु “पांड्य” शिलालेख द्वितीय (कलिज्ज) में बहुवचनांत है। क्या तब अशोक के समय दो पांड्य राज्य थे ! बराहमिहिर इस बात को प्रकाशित करता है कि द्वितीय शताब्दी में उत्तर-पांडय अलग राज्य था | इससे सबथा- लक्षित होता है कि निश्चय दक्षिण पांडय भी अलग राज्य था। इन्हीं प्रमाणों पर निर्णय किया जा सकता है कि अशोक के समय में भी दो पांड्य-राज्य रहे होंगे | सत्यपुत या सत्यपुत्र--वि० स्मिथ ने त्यपुनत्रः के प्रदेश को, काम्बेयोर ज़िले के सत्यमंगलम् तथा पश्चिमी घाट, मेसूर का सीमांत (देश) मालाबार, काम्बेयौर और कुग के प्रदेशों से समीकृत किया है | मेसूर के गेजलह्ाटी-दर पर, पहले इसी नाम का एक नगर अवस्थित था | यह नगर उस समय युद्ध-कोशल का एक प्रमुख महर्व का नगर था । यह प्रदेश साम्राज्य के अंतगंत न था | चन्द्रगुत्त के समय भद्रबाहु से मह्ादेशांतर गमन द्वारा, यह प्रदेश अधिवासित हुआ था। दुर्भिक्ष की आशंका से ही भद्रबाहु ओर उसके शिष्य १२ बष के लिये--बह दुर्भिक्ष १२ वर्ष का पड़ा था--दक्षिण में सत्यमंगल-प्रदेश को गये थे | भद्गबाहु चरित्र में दुमिक्ष का उल्लेख इस प्रकार आया है- द द ु . #अ्थे कस्मिन दिने भद्रो भद्रबाहु:ः समाययौ | श्रेष्ठिनौ तिदास्यास्य कायस्थित्ये निकेतने | तत्न शून्ये गहे चेथो विद्यते केवल शिशु: । भोलिकान्तगत षष्ठि दिवस प्रमितस्द॒दा | गउ्छु-गच्छु वचोज्वादीत तच्छु त्वा, मुनिनी द्रुतम्। निमितज्ञा ननोञज्ञासी न्मुनि रुत्पातमद्गुतम् | शरद्द्वा दशपय्यन्तं दुर्मिज्ञ मध्य मण्डले ॥?
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५४ ह अशोक
अतः इस १२ साल के दुभित्ष के फलस्वरूप ( बृहतूचारनं ) महत्देशांतरं गमन हुआ था।" ।.7९.0 ,5. 0]8, ७. 54] , लिखता है, “सत्यपुत का प्रदेश वतमान कांचीपुर था।” हं नसांग लिखता है कि
यहाँ अशोक के स्तूप विद्यमान थे | इस प्रदेश का दूसरा नाम सत्यत्रत
भी था। .7९.8..5-.-4]2 इस प्रदेश का नाम सत्यमूमि कहता है । यह प्रदेश केरल के उत्तर में था, जेसा कि तामिल साहित्य में मिलता
: है। श्री राधाकुमुद मुकुर्जी लिखते हैं कि “अन्य अक्षर, पुत्र (पुत )
भूमि ( प्रदेश ) या जन्मभूमि के पुत्र का द्योतक है |?* यदि इसे सत्य समझा जाय तो निश्चय ही अनुमान किया जा सकता है कि मूल रूप _
. में केरल ओर सत्य नाम की जातियाँ उत्तरी भारत में रहा करती थीं |
तथा उत्तर भारत से हो ये जातियाँ दक्षिण पहुँचीं ओर वहाँ उपनिवेश बना कर रहने लगीं। इस प्रकार प्राचीन काल में ये केरलपुत्र और सत्यपुत्र के नाम से प्रख्यात हुईं । जातियों के नाम पर प्रदेश का नाम पड़ना आश्चय का विषय नहीं है, प्राचीन काल में बहुधा ऐसा हुआ्रा करता था | अस्तु कह सकते हैं कि सत्यपुत्र में निम्न प्रदेश शामिल थे काम्बेगोर, मालाबार, पश्चिमी घाट और मैसूर की सीमाएँ (कांची- वरम के आसपास का प्रदेश ), तथा कुरग | ७
केरल-चेरा, या मालाबार, अतः मालाबार समुद्र-तट का प्रदेश . “केरलपुत्र” का था। पेरिप्लस के लेखक के समय मोजिरिस (/०पदां।78) वर्तमान करांगनोर ( िए87ठ570० ) केरलपुत्र राज्य को राजधानी थी | किन्तु यौलिमी ने इसकी राजनगरी को कारोरा के भोतरो भाग में स्थित कहा है | कारर (हिं5०पा) वर्तमान काम्बेटौर ज़िले में अमरावती पर श्रवस्थित है।
इन विचित्र विवरणों के कारण केरलपुत्र-राज्य की निश्चयात्मक
रूप से सीमा निर्धारित करना कठिन है | किंतु संभवतया पूव निर्दिष्ट
१4. 98, &. 8. 99, 9. 58647. 5, 5, १००)२०७/४११४, &580])79. 70- 482. द न
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साम्राज्य की सीमायें ओर विस्तार फू.
स्थान पर ही ये लोग रहा करते थे। परन्तु यह सवंथा विदित होता. हे कि इन दक्षिणी-राज्यों (चोड़, पांड्य, सत्यपुत्र, ओर केरलपुत्र) की सीमाए आपस में मिली हुई थीं तथा दक्षिण का वह भाग जो अशोक के साम्राज्य म॑ सम्मिलित न था, इन्हीं चार राज्यों में परस्पर बंटा, हुआ था । इसी अनुषंग में एक बात ओर ध्यान देने की है, वह यह कि, सम्राद ने अपने शिलालेख में एक और प्रदेश अग्वी या आख्व्य का उल्लेख किया है| ११वं शिलामिलेख में सम्राट कहते हैं-- “गुरुसतं वो देवनं प्रियस यो पि च द अपकरेयति छुमितवियमते वो देवनं प्रियस य शको छुमनये य पि च देवनं प्रियस विजिते योति न पि अनुनेती गनुनिभपेति अनुतप पि च॒ प्रभवे देवनं प्रियस बचुति तेष किति अवम पेयु नच ज॑यसु इदति हि देवनं प्रियो ॥? ( शाहबाजगढ़ी ) “देवताशओ्रों के प्रिय का मत है कि जो अपकार करता है,वह- भी क्षमा के योग्य है, यदि वह क्षमा किया जा सके। जो जंगली जातियाँ (अटवी) सम्राट के साम्राज्य के अंतर हैं, उनको भी वह मनाता और धर्म-माग पर लाना चाहता है | वह उन्हें इस बात का ध्यान करवाता है, कि सम्राट के पछतावे (अनुतपे) में भी कितनी शक्ति (प्रभवे ८ प्रभाव) है| जिससे वे लज्जित हों ओर नष्ट न होने पाव |”? पा इस ऊपरी निदंश से प्रकाशित होता है कि यह जंगली जाति अ्रटवी पूर्णतया सम्राट के शासनाधीन न थी | यद्यपि अशोक से वह विजित हो चुकी थी | इससे प्रकट होता है कि आट्व्य राज्य श्रद्ध - स्वतन्त्र था, या ये लोग विद्रोही बनकर शासन के उल्लंघन करने का
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प्रयत्न किया करते थे | शायद इसी शासन-उल्लंघन करने को सम्राट ने अपकार करना कहा है। यही कारण है कि सम्राद की सहृदयता उन्हें शान्ति-पथ पर, बिना किसी रक्तपात के लाना चाहती है। अतः सम्राट उन्हें मना कर, धर्म की शिक्षा दे कर, वशीभूत करने का उपक्रम करते हैं, किन्तु मालूम होता है कि जब वे इतने पर भी न माने और राजविद्रोही हों, शासन-अतिक्रम करते ही गये, तो सम्राद को अंततः उन्हें वाग्दण्ड देना पड़ा, अतः सम्राट उच्चारते हैं, अटवी जाति की निभत्सना करते हुए कद्दते हैं--“अ्रनुनिश्षपेति अनुतपे पि च प्रभवे देवनं प्रियस ।” सम्राट उन्हें घर्मेनथ पर लाना चाहते हैं, (ध्यान रहे) सम्राद के पछतावे में पूंण शक्ति है, श्र्थात् यदि अठवी जाति भली प्रकार आचरण करेगी, तो उनके साथ अच्छा बर्ताव किया जायेगा, उनके पूव दोष क्षमा कर दिये जायँगे, नहीं तो सम्राद् की प्रभापूर्ों शक्ति उन्हें दबावेगी |? इस प्रभापूण शक्ति का अन्बय सम्राट कलिंग हत्याकांड से कराते हैं, जिससे सम्राट को असीम शक्ति का स्वशः निदश होता है.। इस भाँति जंगली जाति को आक्रोस करते हुए, सम्राद् अपने दण्ड देने की शक्ति का परिचय दे, उन्हें लज्जित करते हैं, कि उनके कल्याण के द्वित और नष्ट न करने के अभिप्राय से ही, उनके अपकारों को शक्ति भर क्षमा किया गया है, किन्तु यदि उत्तरोत्तर यही कम रहा तो उन्हें भल्ी तरह दण्ड दिया जायेगा।
अटवी राज्य का अधिपति अदाविका कहलाता था |! कौटिल्य के समय अटठवी का शासन, विशेष अधिकारी अटवीपाल के अधीन था | कौटिल्य ने दो प्रकार की विजयों का उल्लेख किया है--(१) प्रश्रम आउटवी-विजय, अथवा जंगली जातियों को विजित करना और (२) हविंवीय ग्रामादि-विज्य, अर्थात् निश्चित प्रदेश गाँव आदि को विजय करना ।*
१कौटिल्य अथंशास्त्र-प्रकरण १६, १, (शाम-शास्त्री ) ह 'रक्ौटिल्य अथशात्र, ,प्रकरण ५, गंथ-भाग शद्वाँ ( शाप्त-शास्त्री
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साम्राज्य की सीमाये ओर विस्तार पूछ
पुराण में इस जंगली जाति आटबव्य का, पुलिन्दो, विन्ध्यमूलीय चर 0१ ७ ग्रोर बंदर्भो' के साथ उल्लेख किया गया है।
एक ताम्र-पत्र में, परित्नराजक राजा हस्तिन को, दाभाला राज्य के
सहित अट्ठवारह (१८) जंगली राज्यों (अटबी-राज्य) का अधिपरति लिखा गया है | दाभाला दाहाला का रूपान्तर विदित होता है। इस दहाला से अथ बुन्देलखण्ड से है।
गुप्तकाल में भी प्रतापी सम्राट समुद्रगुत्त ने अट्टारह छोटे-छोटे अटवी राज्यों को विजय किया था | मालूम होता है कि अटबी-राज्य बघेलखणड से ले कर ठीक उड़ीसा के समुद्र-तट तक विस्तृत था। अतः यही कारण है कि गोण-शिलाभिलेखों को दो प्रतियाँ रूपनाथ, मध्यप्रदेश के जबलपुर ज़िले में ओर सहसराम बिहार के शाह्बाद ज़िले में--पाई गई हैं | यह रूपनाथ ओर सहसराम अटवीं प्रदेश के
पूर्वी और पंश्चिमी सरहद या सीमा पर अवस्थित थे। घौली ओर
जौगडा, शिलालेखों में सम्राद् अपने कर्मचारियों को, सीमाप्रांत के राज्यों को क्षमा, प्रेम ओर सहानुभूति की नीति के निदेश करने का आदेश देते हैं| उड़ीसा के पास स्वतन्त्र या अद्ध -स्व॒तंत्र अठवी राज्य के सिवाय, मोय्य-साम्राज्य से समीपस्थ और कोई राज्य न था ।
सारांश में समस्त भारतवर्ष, केवल दक्षिण के उस थोड़े से भाग को छोड़ कर जो चोड़, पांड्य, सत्यपुत्र, केरलपुत्र के पास रहा, अशोक के शासनाधीन था |
सम्राट अशोक ने शिलालेखां में बहुत से अपने समकालीन राजा अथवा राजाओं का उल्लेख करते हुए उनके नाम भी दिये हैं। श्र्वाँ शिलामिलेख शाहबाजगढ़ी लिखता है-- “ अंतेषु अषषु पि योजन शतेषु यत्र अंतियोको नम योन राज पर च॑ तेन अंतियोकेन चतुरे रजनि तरमये नम अंतकिनि नम मक नम अलिकसुदरे नम मिर्च ॥”
पूषट ु ग्रशोक
अतः निम्न राजा अशोक के समकालीन थे--(१) अंतियोक (यवन-राज), (२) तुरमय, ( २) अंतकिन, (४) मग और पाँचवा अलिकसुन्दर या अलिकसुदर | _ के
अंतियोक--अंतियोक, सिकन्दर महान् के प्रगल्म जनरल सिल्यूकस का नाती (पौत्र ) था। सीरिया, बैकट्रिया और पश्चिमी ऐसियाई प्रदेशों का यवन-अधिपति यहो अंतियोक था | यह साम्राज्य, मोय-राष्ट्र का पड़ोती साम्राज्य या राष्ट्र था | उसने २६१ से २६७ ई० पूव तक राज्य किया | शिलालेख द्वितीय में भी इसका उल्लेख आया है |
: ठरमय--यह मिश्र का अधिपति ह्वितीय ठोलमी फिलाडेलफौस ( [०0०४९ ॥[ ?9]]556०]०.08 ) था। संभवतः इसने २८५ ० पू० से लेकर २४७ ई० पू्व' तक शासन किया | यह मोय॑-साम्राज्य' से यथेष्ट दूरी का राज्य था | अन्तिकिनि या अंतकिन--बुलेर इसे यूनानो नाम अंतिनिनेस से मिलाया है| पर चूँकि इस नाम का कोई राजा नहीं मिलता अतः अन्तकिन को विद्वानों ने सफलता के साथ अं तिगोन्स गोनाठस ( 07700708 (307०8 8 ) से मिलाया है। यह अंतिगो नस मेसिडोनिया (]/6०७१०४7१३ ) का राजा था। इसका काल २७८--२७६४ ई० पूव से २३६ ई० पूर्व के लगभग है | मग, या मक--मग टोलमी फिलाडेलफौस मिश्र के राजा का भाई था | वह केरीन का अधिनायक था । कैरीन ( (०7७४७ ) मिश्र के
पश्चिम में है । इसका राज्यकाल ३०० बी० सी० (ई० पू०) से लेकर
२२२ ३६० पू० के लगभग पड़ता है । अलिकसुन्दर या अलिकसुदर---इस राजा के प्रति विद्वानों में बहुत
मतभेद है । कुछ विद्यान् अलिकसुदर को एपिरस ( 007५७ ) का
राजा सिकन्दर कहते हैं ( २७२-२५८ ई० पृ० ) और कोई उसे कौरिन्थ ( (/0777/9 ) का राजा ऐलिकजेण्डर कहता है। जिसका
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समय लगभग २५२ से २४६-४४ ई० पूव के दिया गया है |" इन जाश्रों की तिथि ((ठश5एंवंद॒७ सींडझा०एए णी शदा5, ४०. [. 9. 502 से ली गई है। अन्तियरोक, शिल्ञांमिलेख के कथनानुसार अशोक के साम्राज्य का निकय्वर्ती राज्य था | शेष अन्य चार राजा, अंतियोकत के समीपस्थ ओर अशोक के राज्य से दूरस्थ थे | प्रमाण के लिये कालसी ग्रज्ञापन को देखिये-- ४“ नाम योन पल्नं चा तेना अंतियोगेन, चतालि लजोन, तुलमदे
नाम अन्तिकिने |! प्रथम अन्तियोग ( अंतियोकस ) कहा गया है और
तत्पश्चात् उससे परे जो अन्य चार राजा हैं उनका उल्लेख हुआ है जिससे स्पष्ट है कि ओर राज्यों से, अंतियोकस का *राज्य साम्राज्य के निकटवर्ती था |
क्या इन वाह्य बेदेशिक राजाश्रों के साथ सम्राद अशोक का कोई संबंध स्थापित था--यही इसको देखना है | हम इस बात को पहले से
: ही जानते हैं कि सिल्युकेडियन साम्राज्य और मोय्य-साम्राज्य के मध्य
परस्पर दूतों का आवागमन आरंभ हो चुका था। चन्द्रगुप्त मौय्ये के समय मेघास्थनीज, सिल्यूकस का दूत बनकर भारत आया था। मेघास्थनीज बहुत समय तक मोय्य दबार में रंह्या | यहाँ पर रहकर, मेघास्थनीज ने जो भारत का वर्णन लिखा है, वह. इतिहासज्ञों के लिये अमूल्य ऐतिहासिक काम की वस्तु है।
यह भी सुप्रकाशित है कि मोय्य-सम्राद बिन्दुसार ने, एशिया . माइनर के अधिनायक एंटिश्रोकस को, सूखे अजीर, अंगूरी मदिरातथा . यूनानी सोफिस्ट को ख़रीद कर, भेजने के लिये लिखा था।* मिश्र के राजा टोलमी फिलाडेलफोस (२८४-२४७ ई० पू०) ने, जो अशोक का _
33, हि. 3. 5. 94, 9. 944६-46
२७ ३००१676 [700त8 870१ 77ए०87070 ० 0]68597067, 9. 409 / 0()770]6.
६० ५...» ग्शोक
समकालीन था तथा जिसका नाम १५वें शिलालेख में अन्य “संग आदि चार राजाओं के साथ आया है, बिन्दुसार के समय में, अपना एक राजदूत » डेयोनिसियस (])[097800५ 3) मोय्ब॑-दर्बार में भेजा था।' यह दूत बहुत काल तक बिन्दुसार के दर्बार में रहा ।मेघास्थनीज की भाँति इस राजदूत ने भी भारत का विवरण लिखा था. | श्विनी (79) ने डेयोनिसियस के इस विष्रण से बहुत कुछ संदभ किये हैं। किन्तु खेद है कि डेयोनिसियंस का लिखा भरात का विवरण अब
जीवित नहीं, न जाने वह कहाँ अभाग्यवश खो गया । क् : ँट्रेबो लिखता है कि, सिल्यूकस ने, डिसैकस ((2677740/ 08) को राजदूत बना कर, चन्द्रगुत्त मौय्य' के पुत्र अमिद्रोकेटस (बिन्दुसार) के राजदर्बार में भेजा था | ( हुल्स--अ्रशोक के शिलाभिलेख) | श्रतः सवश: स्पष्ट है कि मौय्य-काल में ( सम्राद् अशोक के पूवजों के .... समय), वेदेशिक राजदूतों का आवागमन स्थापित था | किन्तु क्या अशोक-काल में भी यह प्रथा नित्य रही ! अथवा क्या अशोक का इन वाह्य राजाओं के साथ किसी प्रकार का संबन्ध स्थापित था १ यदि था, हे तो उसका कोई माध्यम अवश्य होना चाहिये | ससाद् और वेदेशिक का ' राज्यों के बीच की दीर्घ दूरता क्या पारस्परिक सद्भम में बाधक नथी ! द १३वाँ शिलालेख इन दोनों प्रश्रों को हल कर देता है | वह लिखता | है---“नम योन राज पर च तेन अंतियोकेन, चतुरे रजनि तुरमये नम .. अंतिकिनी, नाम सक नम अलिकसुदरो नम नि... कमल म कह कली द ““ ““ *--दैंवन' प्रियस भ्रमनुशति अनुवर्दंति यत्र पि,.......... ... --“-»»---देवनं प्रियस दुत न ब्रच॑सि ते....... ...... ... ... ।” अर्थात् “यवन नाम अंतियोक और उससे परे जो और चार अंतिकिनि, मक (मग), ठरमय, अलिकसुन्दर नाम के राजा हैं... ... देवताओं के : प्रिय के धर्मानुशासन का अनुसरण करते हैं, और जहाँ देवताओं के प्रिय . के दूत नहीं भी जा पाते हैं--वहाँ भी धर्मानुशासन पर आचरण किया
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साम्राज्य की सीमाय और विस्तार ६१
जाता है।” “देवताओं के प्रिय के दूत” पर से सिद्ध होता है कि अशोक के समय में भी वदेशिक राज्यों में दूत भेजने की प्रथा नित्य थी | अशोक के दूत यवन राजाओं (अन्तिकिन, मक, तुरमय, अलिकसुन्दर) के राज्य में हमेशा 'घम प्रचार! के लिए वहाँ जाते थे, इसमें कोई सन्देह नहीं | अतः वंदेशिक (यवन) राज्यों के साथ अशोक का धार्मिक संबन्ध स्थापित था। दूतां का काम इन राज्यों में धर्म का प्रचार करना था |" .
सम्राट अशोक के राज्यकाल की तिथि--सम्राद अशोक के राज्य-प्राप्ति की तिथि का निशय करने के लिए उनके समकालीन
(यवन) राजाओं की तिथि का अध्ययन आवश्यक है | इन्हीं यवन-
राजाओं की तिथि के आधार पर अशोक की तिथि का ठीक निणय किया जा सकता है | अशोक की तिथि का निर्णय क़ई प्रकार से किया जा सकता है। प्रथम अशोक के समकालीन. यवन-राजाओं के आधार पर, जिनका समय हमें ज्ञात ही है | पहले हमें यह जानना होगा कि द्वितीय तथा त्रयोदश शिक्षाभिलेख किस समय लिखे गये १
श्री सेना2 का मत है, जिसका अन्य अंग्रेज़ी विद्वानों ने भीं समर्थन किया है, कि ये दोनों लेख सप्राद के राज्याभिषेक के १४वें व अभिलिखित हुए थे | किन्तु हाल हो में एक बच्धाली विद्वान श्री हरित- कृष्ण देव एम० ए० ने यह प्रकाशित किया है कि द्वितीय और त्रयोदश शिलालेख राज्यांभिषेक के रण्वे' वष प्रेषित हुए थे |
यदि यह माने कि ये दोनों शित्नालेख अभिष्रिक्त होने के रण्वं बष प्रकाशित किये गये थे, तो इस तारीख़ की उस समय के अनुरूप होना चाहिये जब कि पाँचों यूनानी राजा जीवित थे | यदि श्रवे शिलालेख का अलिकसुन्दर, ऐपिरस का राजा अलिकसुन्दर लिया जाय तो इस वष को २७२ ई० पू० से लेकर रध्द ई० पू० के मध्य आना चाहिये | किन्तु यदि हुल्त के मतानुखार वह कौरिन्थ का राजा अलिकसुन्दर है तो इस साल को २५२ से २४४ ६३० पू० के मध्य आना
१कलिज्ञ शिलालेख द्वितीय (जोगडा)
६२ अशोक
चाहिए। चू कि जिस ११वें शिलालेख में उपरोक्त राजा का वर्णन आया है वह सम्राद के २७वें वर्ष प्रकाशित हुआा था; अतः अशोक का वह वष जब उन्होंने इन यवनों का उल्लेख किया २५२ ई० पू० है, फलतः अशोक का राज्यामिषेक २७६ ई० पृ में हुआ होगा |
अब दूसरी अकार से लीजिए--.कैरीन के राजा मक का समय ३००- १५० ईं० पू० है। २५० ई० पू० में इस राजा की मृत्यु हुईं थी | इस मग का शिलालेख (अयोदश) में उल्लेख आया है, इससे प्रकाशित होता हैं कि ये यवन-राजा लगभग २५० ई० पू० तक अशोक के सम- 'कालीन थे | इस निधन दी खबर पाटलिपुत्न तक पहुँचने में, बस्तुतः
-माग हा ड् कया अथवा वत्त मान सुविधाओं के अभाव के फल-
“खजप ४०२ वा के लगभग लगा हो, अतः यह खबर अशोक ने २४६ 'ई० पू० कपईहोगी। किन्तु यह भी निश्चित है कि जयोदश शिला-
'लेआ प्रकाशन के समय वह जीवित ही था, क्योंकि शिलालेख ने उसका 'डल्लेख दिया है | फलतः इस शिलालेख के प्रकाशन का समय २५१- ५२ होना चाहिये। और जैसा कि बज्ञाली विद्वान द्वारा पूर्बनिर्धिष्ट हो चुका है कि त्रयोदश शिल्नालेख अभिषेक के २७वें बढ प्रकाशित डुआ था, इसलिये अशोक के राज्यकाल की तिथि (जब अशोक सिंहा-
सनारूढ़ हुए थे) क़रीब-करीब २७८, २७६ के पड़नी चाहिये |
तीसरे प्रकार से हम अशोक के राज्यासिषेक की तिथि का निर्णय
'सथम अशोक के दादा प्रगव्म श्री चन्द्रगुप्त के समय को निर्धारित कर
सकते हैं | चन्द्रगुप्त की तिथि जानने के लिये हमें निम्न संदभ्ों पर ध्यान देना चाहिये--..
20.77008 8898 “(86]००प७) 07088606 वशतंप8 70 छ8०७१ छा 070 95970700040905, (8 07 96 ॥7079708 7० 0ए6]६
-80006 46, पघ7४ १७ १906 #रांधातड बएत 875०-७१ [760 7868]8- 008 07 ॥79870788७ छा ४.7
हू पा ज्न्गा बीज > ५ श् दर हक क ' ७जूवबं३96 न ० हे ५ सर सु दर िनन...५ २००७ मा मामा 3.2८... ८८ ५. .> ४ ....# 8, » ० 5 सका अा न हक ् के कं. फेन्ककड: ् बंद 8:2० अं 5 हि वा परदन-+मनन------पम_-क गा-७३३-३५-५५०१४-२॥४१७४ बाकि... ८८"... >तत+-०५&-+-० कक फधचम निजी 5 अब ह कं पा, 3 जज डक, 5 5 है गए हे आअचभाऑिकजस्जःीज-»-3७०-० ०-० नर न सिकतनतक + कक |. अचल ++त- >->3न> ० फट, कर थ्ट
साम्राज्य की सीमायें और विस्तार & ३
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अर्थात् “(सिल्यूकस) ने इन्डस को पार कर सेन्द्राकोटस भारतीय राजा के विरुद्ध जो यहीं रद्दा करता था--पर चढ़ाई की | यावत् वह मित्र बना,और उसके साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित किया |”?
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अर्थात् “स्ट्रोबो के अनुसार सिल्यूकस ने इन्डस के परिचिम प्रदेश का एक ढकड़ा चन्द्रगुत्त को भेंट किया, और बदले में पाँच सौ हाथी पाये”? द .. पुनः “सैन्द्राकोटस् भारत पर उस समय शासन करता था, जिस समय तिल्यूकस अपने भावी उत्कर्ष के निर्माण में, संलग्न था । ।
सिल्यूकस ने, सैन्द्राकोटस् के साथ सन्धि कर ली, और/पूरव में अपने कार्यों की व्यवस्था ठीक कर, अन्टीगोनस, के विरुद्ध युद्ध: में संबद्ध हो गया |? (ई० पू० ३०२) ... यह सुप्रकाशित ही है कि चन्द्रगुप्त ही सेन्ड्राकोट्स_ था । आगे फिर देखिए--सिल्यूकस नेकेटर (३१२-२८० ई० पू०) लगभग ३०२ ३० पू० के, इपिसस की लड़ाई से पूर्ववरतती साल, केपोडोकिया में पहुँचा। यहाँ से भारतवष पहुँचने में कम से कम दो ग्रीष्म व्यय करने पड़े क् होंगे । अतः सम्राट् चन्द्रगुप्त के साथ सन्धि का वर्ष ३०७ के ग्रीष्म में और कम से कम शरद (जाड़ों) यें पड़ेगा । अतः सिल्यूकस और क् चन्द्रगुत को सन्धि ३०४ ई० पू० में हुई थी, जिस समय सिल्यूकस ने मेघास्थनीज को मौर्य दर्बार में मेजा था |२ हु द पुराणों में भी चन्द्रगुप्त का उल्लेख है---
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६४ ग्रशोक
पुराणों के इस उल्लेख का भहावंश समथन करता है---
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फलत; पुराणों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौथ्य ने २४ वर्ष तक राज्य किया। अर्थात् १२३ से २६६ ई० पू० तक के लगभग राज्य किया । और चूँकि पुराणों के अनुसार बिचुसार ने २५ वर्ष तक शासन किया इसलिए बिन्दुतार का शासन काल २६६ ईं० पूं० से लेकर २७५-२७४ ई० पू० तक रहा | अतः सिद्ध है कि अशोक को २७४ ई० पू० में राज्य मिला, हस्तगत हुआ । यहाँ पर महावंश लिखता है--“अशोक अपने घममं और अद्वितीय प्रतिभा के कारण, पूर्ण शक्तिशाली था । अपने निन््यागबे भाइयों का निधन कर वह जम्बुद्दीप का एक्षत्र अधिपति बन बैठा ।* राज्यारोहण के चार साल बाद, इस अद्वितीय प्रतिभाशाली सम्राट ने पाटलिपुत्र में अपना अभिषेक- उत्सव किया |?!
अतः विदित है कि राज्यारोहण के चार वर्षों' के पश्चात् सम्राट अशोक का अभिषेक हुआ, यदि यह ठीक समझा जाय तो अशोक के
अभिषेक की तीथि २६६-२६८ ई० पू० में पड़ती है। किन्तु शिला- लेखों से स्पष्ट है कि विभिन्न प्रकार से हम २७६ ३० पू० पर ही पहुँचते
१ यह गलत सिद्ध हो चुका हे (देखिये प्रथम प्रकरण, इसी पुस्तक में)
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साम्राज्य की सीमायं ओर विस्तार ६५.
हैं। शिलालेखों की सत्यता अधिक प्रमाणयुक्त होनी चाहिये, इसलिये यदि हम २६६ ई० पू० के अतिरिक्त २७६ ई०पू० को ही सम्राट का अभिषेक काल मानें, तो हमसे अधिक भूल न होने की सम्भावना
है।
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तीसरा प्रकरश अशोक की शासन-व्यवस्था
दूसरे प्रकरण में हम मौय्य-राष्ट्र की सीमाओं का उल्लेख कर आये हैं। अतः हमें पूर्णतया मालूम है कि अशोक के समय मौथय्य- साम्राज्य एक अत्यन्त विस्तृत साम्राज्य था । द
अशोक के शासन-काल के पहले १३ वर्षो के प्रति हमें कुछ मालूम नहीं है | अशोक का यह समय बौद्ध-धर्म ग्रहण करने से पहले का है | इस समय का यदि कुछ उल्लेख मिलता है तो पिंहल की बौद्ध-कथाओं से ही, जो अ्रशोक को, जेसा कि हम प्रथम ही निर्दंब कर आये हैं, चंडाल, दुराचारी के घृणित नामों से पुकारते हैं। गाथाये कहती हैं, एक दिवस क्रोध में आकर, उसने अपने ही हाथों से तलवार लेकर पाँच सो (४००) मंन्त्रियों का बध कर डाला । दूसरे दिन उसने पाँच सो (५००) स्त्रियों को जीवित द्दी जलवा डाला, क्योंकि
इन स्त्रियों ने प्रायाद के “अशोक” वृक्ष से पत्तियाँ तोड़ कर सम्राद्
अशोक का परिहास किया था। ये कहानियाँ निरी गप्प हैं ।
अतः कहने का आशय यही है कि अशोक के प्रति इस समय का हमें कुछ ज्ञान नहीं । सम्राद के जीवन का यह काल अप्रकाशित है । तथा यदि सम्राट के प्रति इमें कुछ मालूम है तो उन्हीं के शिलालेसोों से, ओर शिलालेख हमें इस काल का कोई परिचय नहीं दिलाते | इसलिये निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि सम्राट इस समय
किस प्रकार शासन करते रहे होंगे । मेघास्थनोज से हमें मालूम है कि
चन्द्रयुप्त के समय राजनगरी की शासन-प्रणाली क्या थी, अ्रतः इसी
विवरण के आधार पर हम कट्ट सकते हैं कि कम से कम श्रशोक के _ शासन-काल के प्रथम दिवसों में भी शासन का वही रूप रहा होगा।
|
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अशोक की शासन-व्यवस्था ६७
मौय्य शासन का उल्लेख करते हुए मेघास्थनीज ने लिखा है कि
. बाज़ार, नगर, सनन््य आदि के शासनाथ अलग अ्रलग कमचारी नियत ये | नदियों की देखभाल करने के लिये तथा भूमि की पैमाइश करने
के हेतु भिन्न कमचारी नियुक्त किये जाते थे | राजस्व वसूल करने के लिये भी अलग प्रकार के अध्यक्ष हुआ करते ये | कुछु राजकम चारियों
की कार्य सड़क बनवाने का था, इन कमचारियों को प्रत्येक १०
स्टेडिया, पर अ्रलग-श्रलग रास्तों तथा दूरी का निदंष करने के हेतु स्तंभ भी गाड़ने पड़ते थे |
.. पाटलिपुत्र का शासन ३० सदस्यों की एक कमीशन द्वारा होता था। यह कमीशन ६ सभाओं अथवा परिषदों में, विभाजित थी--प्रत्येक सभा में पाँच सदस्य हुआ करते थे'। पहली सभा का कार्य दस्तकारी की देखभाल करना थां | दूसरी सभा विदेशियों की आवभगत श्लोर देखभाल करने के लिये थी। यदि कोई विदेशी आदमी बीमार
हो जाय तो इस सभा को उसका इलाज करना होता था, और यदि वह
मर जाय तो उसकी मृत-क्रिया भी इसी सभा को करनी पड़ती थी ।
. तीसरी सभा को जन्म और मरण का लेखा रखना पड़ता था | चौथी
सभा तिजारत और व्यापार की देखभाल करने के लिए. नियत थी--- यह सभा तोल की भी जाँच किया करती थी। पाँचवीं सभा को बने हुए माल की बिक्री का प्रबन्ध करना होता था। छुठीं सभा का काय बिके हुए माल पर चुड़ी वसूल करना .था--इस चुज्ञीकी दर १० प्रति सैकड़ा थी। चुज्ञी न देने पर चोरी की तरद्द अंगमंग तथा फॉँसी तक का भी दण्ड दिया जाता था ।
: इसी भाँति सेना के शासन के लिए भी ३० सदस्यों की एक' कमीशन नियत थी । यह कमीशन ६ सभाओं अथवा परिषदों में बंटी हुईं थी--प्रत्येकत सभा में ५ सदस्य होते थे। ये ६ सभायें या परिषद---(१) जल-सेना, (२) बैलगाड़ी, (३२) पेदल, (४) श्रश्वारोद्दी (२) रथ ( वादा 08 ) (६) दाथी ( 5०0797४8 )
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आदि के प्रबन्ध का काय करती थीं. (87००४ िठांव ऐफ /6ठ5870879686... वात 5४97 ]/०(४?पी७ .07. 86-87) इसके अलावा मेघास्थनीज ने दर्बार का वणन भी दिया है। प्राच्य सम्राठों की भाँति ही मौय्यं दरबार का वभव था | सम्राट के अतिरिक्त राजकर्मचारी भी सोने की पालकी में बैठकर दबार में आते थे। राजकीय सचारी के साथ सजी-घजी स््रियाँभी हुआ करती थीं। घनुष वाली स्त्रियों ओर दर्बारी निरंतर सम्राद की
परिचयों में लगे रहते थे| शिकार के समय भी ये स्त्रियाँ साथ रहा हि ओई
रोकना था। रांजमाग पर अतः कोई नहीं चल सकता था और यदि कोई बिना आज्ञा के राजमार्ग पर चला जाय तो उसे फॉँसी का दण्ड
करती थी--सम्राद इन लड़ाइयों को बहुत पसन्द करते थे। इसी प्रकार की लड़ाई आदि के उत्सव मनाने को अशोक ने अ्रपने शिला-
लेख में बुरा “समाज” कहा है। मोय्य शासन-व्यवस्था को समभने के लिए कोटिल्य का अथशाख्न
भी यथेष्ट सहायता की वस्तु है। किन्तु हम निश्चित रूप से नहीं कह
सकते कि कोटिल्य के विधान के अनुरूप ही मौय्ये चन्द्रगुप्त तथा अन्य मोय्य-सम्राटों ने शासन किया द्ोगा। अथशासत्र यद्यपि चन्द्रगुत्त के परम सहायक ओर मंत्री कोटिल्य का लिखा है, किन्तु वह सब रूप- तियों के मार्गद्शन के लिये है, अतः यह कहना कठिन है कि मौय्य- राजाओं ने दृढ़ता के साथ कौटिल्य की नीति पर ही शासन-का्य किया था, किन्तु निःसंदेह इतना अ्रवश्य कद्ट सकते हैं कि मोय्य-राजाओं की नीति पर अथशास्त्र का यथेष्ट प्रभाव रहा और संभवतया इसी के आदश को लेकर मौय्य-राजाश्ं ने शासन का विधान किया | कौटिल्य या शासन की शासन-नीति--मौय्य॑ शासन-विधान का कुछ ज्ञान करने के लिए--उंक्षेप में यहाँ पर कौटिल्य की नीति
है. अब
अशोक की शासन-व्यवस्था ६.
उद्धृत की जाती दे। शासन के श्रथ चाणक्य ने निम्न अवयव बतलाये हैं-- द (१) राजा--राजा को प्रजा केद्वित सब काय पराक्रम सहित करना चाहिये ( जेसा अशोक ने किया ) | 4 (२) प्रिवी-कोंसिल---तहकारिन-सभा या परिषद् (अ्रथवा मंत्री- परिषद्) । २३) विभाग--जेसे गुप्तचर-विभाग, राजदूत-विभाग आदि 4... (४) छः सभाये--जिन छु। सभाओं का मेवास्थनीज ने उल्लेख किया है, उनके प्रति कौटिल्य से हमें कुछ परिचय नहीं मिलता । . (५) चुज्ञी--बिक्ते हुए. माल पर चुड़ी एकत्रित करने को अध्यक्ष नियत थे | (मेघास्थनीज ने भी इसका उल्लेख किया है)। ... (६) जन्म और मरण की गणना--इस कार्य के लिए “नागरक”? नियत द्वोते थे | इस नागरक को जनगणना का लेखा रखना पड़ता था
कि कोन-कोन पैदा हुआ और कौन मरा |
(७) राजशुल्क--विदेशी मदिरा जो कपिसता अथवा अफ़ग़ानि- स्तान से तथा यवन-प्रदेशों से भारत आती थी--उस - पर “कर” वसूल करने के लिए कराध्यक्ष हुश्रा करते थे | द
(८) दण्डय-संहिता या पिनल कोड (2803! (7०00०७)--दण्ड बहुत कड़ा दिया जाता था। दण्ड निष्ठुरता इतनी अत्यधिक थी कि यदि कोई सरकारी आदमी श्राठ पण के मूल्य तक की कोई वस्तु चुरा ले तो उसे फॉँसी का दण्ड दिया जाता था। तथा यदि कोई अन्य आदमी--जो राजकमचारी न हो--४० से लेकर ५० पण
. तक चुरा ले तो उसे भी मृत्यु-दरड दिया जाता था |
(६) सत्य की परख--किसी दरडी से सत्य बुलाने अथवा किसी बात को उससे कबूल कराने के लिए कई प्रकार से कष्ट देना न्याय- संगत माना जाता था--अ्रपितु यह विधान स्वरच्छेदतापूवक काम में
लाया जाता था।
१90 - .. अगअ्रशोक
यहाँ पर निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि अशोक ने भी कोटिल्य-नीति का एकदम पालन किया या उसकी नीति को
एकदम छोड़ ही दिया ; किन्ठु अशोक की शासन-नीति जेसी कि.
शिलालेखों से मिलती हे--बहुत कुछ उल्नट-फेर के साथ यही थी वस्तुतः अशोक ने भी अपने दादा ओर पिता की पूवनीति पर द्वी काम किया यद्यपि राजनीति. के पूर्व-नियमों में कुछ परिवर्तन तथा सुधार-कार्य श्रवश्य किया गया--जेसा कि शिलालेखों से मालूम होता है।
अशोक का शासन--(शिल्लालेखों के आधार पर)--पू्व की भाँति:
मौय्य-साम्राज्य कई प्रान्तों में बँगा हुआ था। अ्रशोक राजकुमार अवस्था म॑ उज्जन तथा तक्षुशिला का भी प्रान्तीय शासक रह चुका था । अतः इसी नीति का अनुसरण करते हुए सम्राद अशोक ने भी शासन की सुभीता के लिए मोय्य-राष्ट्र को विभिन्न प्रान्तों में बॉट रखा था । प्रान्तों के शासन के लिए प्रान्तीय शासक अथवा उप-शासक
(५7००7०५७) नियुक्त ये। इन प्रान्तों में से कुछु प्रान्त अश्रत्यधिक
राजनैतिक महच्च के थे | अतः ऐसे प्रान्तों के लिए राजकीय पराने के कुमार नियत किये जाते थे। इन प्रमुख प्रान्तों की संख्या चार थी | ये प्रान्त नीचे दिये जाते हैं--..
१) गान्धार--इस प्रान्त की राजनगरी तत्नशिला थी। सिकन्दर के आक्रमण के समय--जेंसा कि औक इतिद्ासजश्ों से मालूम होता है, तब्षशिला सुस्थित और समृद्धिशाली नगर था | इसी का राजा अम्भीक हुआ, जिसने मेसिडोनियन प्रभुता को अंगीकार किया था। मध्य एशिया के साथ व्यापार करने का यद्द प्रमुख वाणिज्यस्थान श्रयवा केन्द्र था। तक्षशिला आय-विद्या का भी प्रमुख स्थान रह चुका था, संभवतंया सिकन्दर के आगमन से ४० वष पूव- अद्वितीय व्याकरणांचाय---“पाणिनी”? यहाँ पढ़ाया करता था। इस नगर के खंडइदर वतमान रावलरपिंडी तहसील के साइधरी गाँव से
मिलते-जुलते हैं | तज्ञशिला बौद्ध-धम के प्रमुख तीथ-स्थानों में से एक
अशोक की शासन-व्यवस्था ७१
था। कहा जाता है कि इसी नगर में बुद्ध भगवान ने अपने सिर का
दान किया था| इसके पश्चात् तक्षुशिला इतिहास से ओमल हो
जाता है और अन्ततः २०वीं शताब्दी में खोद कर फिर उसका पता
लगता है। यह प्रान्त सीमान्त था--अ्रतः व्यापार का केन्द्र होने तथा सीमांत
प्रदेश होने के कारण इसका अशोक के समय यथेष्ट राजनेतिक महत्व
था | इसलिये इसका शासक भी राजकुमार था |
(२) कलिड्ड--यद्द प्रान्त संम्राद अशोक ने हाल ही में विजय किया था | श्रतः यह प्रदेश भी कम राजनैतिक महत्व का न था । नव-विजित प्रदेश होने के कारण उसके लिए. एक क्रमणशील तथा विश्वस्त शासक की आवश्यकता थी, जिससे प्रजा में शान्ति स्थापित रहे और कहीं विद्रोह न होने पावे। अतः इस प्रान्त का शासन भी राजकुल के कुमार के पास था । रा
..-.. (३) जज्जैनं--यह प्रान्त न सीमान्त था और न नवीन विजय - किया हुआ ही प्रदेश ; किन्तु अशोक के समय यह प्रान्त व्यापार
का मुख्य केन्द्र था। अतः यह प्रान्त भी राजकुमार द्वारा नियंत्रित किया जाता था | प्राचीन काल में यह “अ्रवन्ती?? के नाम से विख्यात था | आज भी अवपन्ती का स्थान प्रमुख तीथ-स्थानों में से है। आर्य
भोगोलिकों के अनुसार उज्जेन का वही मद्दत््व है जो ग्रीनविच
((॥788797720) का अंग्रेजों में है ।
(४) दक्षिणी प्रान्त--अन्तिम प्रमुख प्रदेश दक्षिण के चोड़ और पांडय राजाओं की सीमाओं को छूता हुआ दक्षिण का दूरस्थ प्रान्त था। स्वतन्त्र राज्यों के पास स्थित होने के कारण यह प्रान्त भी राजनेतिक दृष्टि से यथेष्ट मदत्व का प्रदेश था। अतः इस प्रान्त का शासन भी राजकल के “आय्यपुत्र! के अधीन था। इस प्रदेश की शाजनगरी सुवणगिरी थी |
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(५ ५ छ् ही 3 + उमा 0004 शनि आन
छर. .. . अशोक
यहाँ पर एक बात ध्यान देने की है--अशोक के शिलालेखों .
में पूवनिदिष्ट तीन प्रान्तों के शासकों के लिये 'क्मार' नाम आया है | किन्तु सुवर्णंगिरी के शासक को ब्रह्मगिरी (गौण-शिलालेख प्रथम) म॑ आरय्यपुत्र कहा गया है। मालूम द्वोता है कि आय्यंपुत्र” कमारों
के अतिरिक्त पद में बढ़ा था | महाभाग में आम्रपाली लिक्षिवी .
राजाओं के लिये “आपय्यपुत्र! शब्द का प्रयोग करती है। इससे
मालूम होता है कि आय्येपुत्र, कुमारों के अतिरिक्त राजाओं?
के लिये प्रयुक्त किया जाता था | इसी तरह भाव अपने नाटक स्वप्नवासवदत्ता भें उदयन को तीन बार आय्यपुत्र' से संबोधित करता है। अतः प्रकाशित है कि आय्यपुत्र? का पद कुमारों से बढ़ कर था, जिससे यद्द मालूम होता है कि ओआदरय्यपुत्र” युवराज था (देखिए---भ्री भंडारकर,-अशोक प्ृष्ठ-२५--५७) ।
पूवनिदिष्ट प्रमुख प्रान्तों को छोड़ कर और भी प्रान्त थे। ये _प्रान्त अधिक राजनैतिक महत्ता के न थे। अतः इन प्रान्तों का शासन
'राजकुमारों के पास न था। परन्ठु इन प्रान्तों के शासकों के प्रति शिलालेखों से भी हमें कुछ नहीं मालूम होता । किन्तु रुद्रदमन के जुनागढ़ लेख से विदित होता है कि सोराष्ट्र का शासक अशोक
'के समय यवनराज तुहृषास्प के पास था तथा उनके दादा के समय
पुष्पपुत)्त उसका शासक रहा था!। सौराष्ट्र प्रदेश का एक यवन क्यों शासक था? इस प्रश्न का निरूपण करते हुए श्री भंडारकर कहते हैं कि जिस प्रकार अकबर के समय हिन्दू मानसिंह और बीरबल प्रांतों के शासक हो सकते थे तो फिर अशोक के संमय में विदेशी यवन के:
अधिपतिं होने में कंया आश्चय ! हाँ, हो सकता है यह सम्राद की _ एक राजनीतिक चाल हो जिससे वे अपने देश में बसे हुएं यवनों
को भी पूरे हकों को देकर खुश करना चाहते हों। श्री भंडारकरजीः
3 प90, 470708, ५४१॥] 539. 46-47.
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अशोक की शासन-व्यव॑स्था ७रे
के 'मानसिंह? वाले उदाहरण से यदि श्रनुमान को संकट में डांला जाय तो यह भी कद्द सकते हैं कि शायद सम्राद तथा तुहषास्प यवनराज के मध्य कुछ सम्बन्ध हो चला था। इसमें भी कोई आश्चय नहीं, क्योंकि हम जानते हैं कि यवन सिल्यूकस की पुत्री स्वयं अशोक के प्रतापी' पितामह चन्द्रशुप्त को ब्याहद्दी थी। तीसरा कारण स्वयं अशोक की विश्व-प्रेम-भावना और अ्रपक्षपात हो सकता है |. जमिमित्रं ही उनका पावन सिद्धांत था। उनके तथा अन्य जीवों, मानवों के मध्य कोई अंतर न था, उन्हें तो शासन के लिये एक योग्य ओर कुशल व्यक्ति की आवश्यकता थी; चाहे वह किसी भी जाति, रंग और श्रेणी का हो।... क् यह विश्व-भावना द्वी सम्राद अशोक के अद्वितीय होने का कारण है | उनकी महानता आदशवादी होने में नहीं, किन्तु मनसिज
आदर्शों तथा मनोगत भावों के प्रत्यक्षीकरण में है | उनका वाह्य-
शून्यवाद ([568)877) अकृत्रिसम तथा काल्पनिक ही न था वरन् उनके संकद्यों में इष्ट्सिद्धि एवं कृताथ ता थी ।
प्रान्तीय कुसारों के अभ्रधिकार--ये प्रांतीय कुमार-उपशासक ( हिपाशवए ए०७7०ए४७ ) बहुधा खतंत्र ही हुआ करते थे। उनकी शक्ति सम्राद से संकलित न थी। उन्हें यथेष्ट स्वतंत्रता प्राप्त थी--उज्जेनी और तत्नशिला के कुमारों को अपने आप
महामात्र नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त था। प्रति तीसरे वर्ष
शासन की देखभाल श्रोर जाँच करने के लिये कुमार-शासकों
हैं (टमहामात्रों) प्रांतों में दोरा करने को भेजना पड़ता था ( प्रथक कलिंग शिलालेख )। किन्तु तोषाली प्रांत के कुमार को यह अधिकार न प्राप्त था, जब कि और प्रांत के .कुमार-उपशासक स्वयं महामात्रों को नियुक्त करते थे, तोषाली के महामात्रों की नियुक्ति स्वयं सम्राद ही करते थे। अस्तु जबकि उज्जेनी और तन्षशिला के प्रांन्त कुमार-शासकों के पूर्ण अधिकार में ये; तोषाली
ट - अशोक
का प्रान्त कुमार तथा महामात्रों के सम्मिलित शासन के आपधिपत्य में था; जिसका पूर्ण नियन्त्रण पुनः सम्राद के द्वार्थों में था | सुबर्णगिरी का शासक--जिसके द्वारा सम्राद (अशोक) ने कुछ आज्ञायें वा अनुशासनों को इसिला के मह्यमात्रों को भेजी थीं--अ्रन्य कुमार उप-शासकों के पद से बढ़ कर था। शिलालिखों में सवत्र 'कुमारः ही राजघराने के शासकों के लिये प्रयुक्त हुआ है, किन्चु प्रथम और द्वितीय शिलालेख में कुमार की जगह “आयेपुत्र” आया है। इससे मालूम होता है कि इन दो शब्दों ( कुमार और आ्यपुत्र ) में कुछ पद-सूचक भिन्नता है | कलिज्ञ लेख तोषाली, उज्जेनी तथा तक्षशिला के उपराजों को कमार लिखता है केवल मेसूर के दो गोण शिलालेख सुवर्णगरी के उपशासक को “आयपुत्र/ लिखते हैं, जिससे मालूम होता है कि आयंपुत्र! 'कुमार”-पद से उच्च पद का सूचक है | एक द्वी पद के लिये दो विभिन्न शब्दों का प्रयुक्त होना कुछ श्र॒वंगत सा लगता है | अतः यहाँ पर श्री भंडारंकरजी का मत ही श्रेयस्कर विदित होता है--उनकी सम्मति के अनुसार 'आ्राय्यपुत्र” युवराज था। सम्राद के. श्रनंतर साम्राज्य का अधिकारी भी यही युवराज होता था । ' द
यहाँ पर इतना और कद्ट देना होगा कि तोषाली प्रान्त को छोड़ कर अन्य प्रान्तों का पूण भार और शासन कूमारों के ही स्कंध पर
, था। उनके शासन-काय में सम्राट कछ भी हइस्तक्षुप न करते थ।
जब समाद को कूमार-उपशासकों के अधीनस्थ विभाग या उप- विभागों के मह्यमात्रों को कोई अनुशासन भेजना होता था तोये . आज्ञायें वा अनुशासन सम्राट कमारों के द्वारा द्वी मह्यमात्रों को मभिजवाते थे। 'इसिला? के मद्दामान्नों को आय्यपुत्र) द्वारा दी अआज्ञाय प्रेषित की गई थीं |
किन्तु जो प्रान्त सीधे सम्राद के अधीनस्थ थे, वहाँ के प्रांतों तथा उप-विभागों के शासकों . को सम्राद स्वयं आशायें मेजते थे--जेसे
*ण आए ाणाणाओं
अशोक की शासन-व्यवस्था ... ७५
कोसाम्बी तथा सारनाथ के महामात्रों को सम्राद ने सीधा सम्बोधन किया है | इन महामात्रों को सम्राद स्वतः आज्ायें देते हैं नकि कुमार-उपशासक के माध्यम द्वारा अनुशासनों को मिजवाते हैं । राज्य के प्रान्तों के शासन का. उत्तरदायित्व कमार-उपशासक, तथा . भहामात्र दोनों पर था | अस्तु जब सम्नाद कभी प्रांतों को आज्ञायें प्रेषित करते थे तो वे आज्ञायें कुमार तथा महामात्र दोनों के संयुक्त नाम पर भेजी जाती थीं | इसी प्रकार कुमार-शासक भी जब कभी अपने अधीनस्थ महामात्रों को आज्ञा भेजते थे, तो ये आज्ञायें कुमार अपने और महा- मात्र दोनों के सम्मिलित नामों से प्रेषित करवाते थे। अतः: प्रांतों के शासन का उत्तरदायित्व कुमार तथा महामात्र दोनों पर था। राज्य के अन्य कमचारी---इतने विशाल राज्य के शासन-काय के लिये अन्य भी कई राजक्मचांरी रहे होंगे--इसमें कोई भी सदेह नहीं । परन्तु उन सबका ठींक-ठीक पता लगाना कठिन है। हाँ, तीसरे शिला- लेख से हमें अवश्य तीन और राजकर्मचारियों का पता लगता है-- (१) प्रादेशिक (प्रादेतिके, पाडेसिके), (२) रज्जुक, (३) युक्ता । इन विभिन्न राजकर्मचारियों को कौन कोन कार्य करना होता था इसी को जानने को अब इम कोशिश करंगे | पहले युक्त को ही लीजिए|। युक्त यह शब्द कौटिल्य के श्रथशास्त्र में भी प्रयुक्त हुआ है, तथा साथ ही कौटिल्य अथशास्र में 'युक्तः के अधीनस्थ-सहायता देने वाला “उपयुक्त? ( राजकर्मचारी ) भी श्राया है| अ्थशाख््र से प्रमाण देते हुए भ्री० एफ० डब्लू० थौमस का कइ्ना है कि ये युक्त राज्य के गौण अथवा प्रमुख कर्मचारी थे ।* मनुस्मृति में भी युक्त शब्द आया, है-- ८ प्रणष्टाघिगत॑ द्रव्य॑ तिष्ठेयुक्त रधिष्ठितम् | मांस्तत्र चौंरान् णहीयस्तान् राजे भेन घातयेत् || : मनुस्मृति ८१३४
प्रम युता लज्जुके पादिसके--ठूतीय शिलालेख (कालसी) “व. 8. 3. 8. (7४० ए06 8 07 &807० ०0. <7।7५),
७६ ... ग्रशोक
“खोया हुआ धन पुनः प्राप्त होने पर थ युक्त! के पास रहना चाहिये | कोई भी व्यक्ति चोरी में सम्मिलित हुआ विदित होने पर राजा को उसे हाथी द्वारा मरवा डालना चाहिये |? इस कथन द्वारा . चुक्त! के काय पर अच्छा प्रकाश पड़ता है, मालूम होता है ध्युक्तः
लोगों को पुलिस अथवा नगर-रक्तण का कार्स भी करना पड़ता था |
कोटिल्य. लिखते हैं... “मत्स्या यथान्नस्सलिले चरन्तो ज्ञात न शक्या सलिलं पिवन्त: | युक्तास्तथा कार्यविधो नियुक्ता: ज्ञातु शक्या धन माददानाः |” द (कौटिल्य अर्थशास्त्र, पृष्ठ ७० २।६)। “जिस प्रकार यह ज्ञात करना कठिन है कि पानी,के भीतर की मछली पानी पी रही है या नहीं, उस्ती तरह यह मालूम करना भी
कठन है कि थुक्त? धन हड़प रहे हैं या नहीं ?? इस कथन से मालूम होता है कि युक्त लोग कोषाध्यक्ष्य थे, उनके पास हिसाब ( ब>-
००पणा ) का कार्य था । इन युक्तों को राजस्व संग्रह करना पड़ता था तथा ये ही लोग कोष के अध्यक्ष भी होते थे | ऊपर कहा है कि श्री थोमस “युक्त! को अमुख्य वा गोण कर्मचारी लिखता है, किन्तु कौटिल्य के कथनानुसार ये युक्त राज्य के प्रमुख कमचारियों में से थे | को टिल्यः अथशास्र २। ६७ लिखता है, “राजक्रोष में खयानत होने पर, निम्न व्यक्ति--जेसे निधायक / खजान्ची » निबन्धक, प्रतिग्राहक, दायक,
मंत्री, वेवत्त कार, इन सब की अलग से परीक्षा होनी चाहिये | अगर इनमें:
से कोई भी भ्ूठ कह्दे तो उसे वही दशड' मिलना चाहिये जो कि प्रमुख . कर्मचारी थुक्त को--जिसने अपराध किया है--दिया जायेगा |» : फलतः ये युक्त लोग राज्य के प्रमुख कमचारियों में से ये | अस्तु, कोष
की अध्यक्षता तथा कर वसूल करने के चाथ साथ इन युक्तों के पास जिले.
का शासन भी सुपुद था--जेसी कि श्रो भंडारकरमी तथा. थौमस करे
सम्मति है| फलतः युक्त राजस्व एकत्र करने वाले, जिले के शासक _
००||82(0//3) नगर का रक्षुण-कर्तता तथा आमदरफ़्त का दहिसाक
अशोक की शासन-व्यवस्था ७७
रखने वाले ( ७00077/97[8 ) ये | शिलालेख में भी “युक्त” प्रथम आया है, इससे भी मालूम होता है कि युक्त? प्रमुख कर्मचारियों मे से थे | “ के
राजस्व एकत्र करने वाले इन यक्तर और “उपयक्त? कर्मचारियों
के बहुत पीछे तक विद्यमान रइने का हमें उल्लेख मिलता है | राष्ट्रकूट.
७ “5७
' अद्दाराज गोविन्द चतुर्थ ( ६३० ई० ) ने श्रपने शिलालेख में ग्रामकूट,
मद्दत्तर आदि राजकर्मचारियों के साथ, साथ युक्त तथा उपयक्त कमें- चारियों का भी उल्लेख किया है। गुसकाल में भी संभवतः इन्हीं युक्त ओर उपयुक्त कर्मचारियों को आयुक्त” और “विनियुक्त! कहा गया है जेंसा कि सम्राद समुद्रगुत्त के शिलालेख से मालूम द्वोता है। श्री सेना: ओर बुल्लेर के अनुसार युक्त का अथ--विश्वसनीय तथा “तंव्य-परायण? से है (55747, . 7. 78) । (87.6४ 2.]0.
(७, (>, हरा 5७9. )06, 8) किन्तु श्री सेनाट तथा
बुलेर के इस पक्ु का विद्वानों ने समथन नहीं किया है ।
प्रदेसिक--भश्री थौमस कहते हैं प्रद्सिका का काय “कार्यनिर्वाहक ( 65७८०४ए७ ०7067 ) राजस्व एकत्र करना तथा नगर-रक्षण (70]06) था । ये प्रदेसिक अपने प्रमुख प्रदेस्तिर (जो राजा के मंत्रीमंडल का सदस्य - होता था।) के अधीनस्थ होते थे।" किन्तु कने, बुलेर और सेनाट का कहना हे कि प्रदेसिक स्थानिक शासक (#०रांग्रणंवी (+००७०४००7०४) व देसिक प्रधान होते थे'। बुलेर इनको ठाकुर, रावल, राव, श्रादि का पूवज मानता है ।*
श्री भंडारकर, कने ' के पक्ष का समथन करते हुए कहते हैं कि अदेसिक- प्रान्तीय शासक होते थे। (30570ठ57व78 5809 09. 59) | किन्तु मेरी सम्मति में श्री थौमस का पक्ष ही प्रबल है और प्रदेसिका का वही अ्थ होना चाहिये जेसा कि थोमस कहते
हैं। प्रदेशका को व्युत्पत्ति प्रदेश से है जिससे प्रभावित होकर - १9.8.4 .8., 90. 384---58, 94. “व.).00,6, जररणएपा 06
कह
ष्च्द ... ग्शोक
निःसंदेह बहुत से विद्वानों ने उन्हें प्रदेश का शासक करार कर दिया | परन्तु यदि कोटिल्य के अथंशास्र को अच्छी तरह देखा जाय तो विदित होगा कि प्रदेशना का अर्थ रिपोट या आवेदन भी है। द
अथशास्र लिखता है, “वेदेहकव्यज्ञनो वा साथ प्रमाण राज्ञः प्रेषयेत् । तेन प्रदेशेन राजा शुल्काध्यक्ष॒स्थ साथ प्रमाण मुपादिशेत् |” यहाँ पर तेन प्रदेशेन का अथ होता है, उसकी रिपोर्ट पर अथवा आवेदन पर | अतः प्रदेसिका की व्युत्पत्ति इस प्रदेशे(न) से भी प्रमाणित हो जाती है | इससे मालूम द्दोता हे कि प्रदेसिक का कार्य रिपोट सुनना तथा रिपोर्ट पर कायबाहदी करना था | फलतः इस प्रदेसिका का कार्य विशेषत: कारय निर्वाहक (#782प7प86 ०7087) के रुप में लेना चाहिये। इसके अलावा नगर-रक्षण तथा राजस्व उगाने का कार्य भी उनके सुपुद था। संभवतः अ्रशोक के शिलालेख का “प्रदेशिका? (शब्द) कोटिल्य के 'प्रदेशेता! के अनन्यरूप--(]068!]0वा) है।
' अस्तु कोटिल्य अथशासत्र के अनुसार प्रदेसिका अथवा 'प्रदेसितरः का . निम्न काये था--“गोप (ए]]5ठ७ 3०0००प५४/००॥) और स्थानिक
(त800 ०087) के कार्य का निरूपण अथवा अवेज्षण करना तथा गाँव और जिल्ले के आफ़िसरों की कायवाद्दो की जाँच-पड़ताल करना, तथा मुख्यतः धर्म्म-कर “बलि? को उगाना था। उन्हें यह भी
अधिकार था कि वे पिछुले अवशिष्ट कर को बलपूवक एकत्र कर लंबे | वे दुष्ट अफसरों को दुंड॒ भी दे सकते ये |” कौटिल्य अथंशीस््र, - प्रकरण--३५, भाग २, श्लोक--१४२ ।
_ रज्जुक--जातकों में रज्जुक का कार्य नापने, तथा सीमा निर्धारित करने का दिया है । जनादन भट्ट की राय है कि रज्जुक
लिपिकार ये।* “ग्रशोक की पर्म-लिपियाँ” काशी नागरी द
१जनाद न भट्ट, अशोक, पृष्ठ १२९ ।
9५,. >>#न्पनीनिक यम मओड 4.2... ३.5 230 जोन्टी ह तल कक
अशोक की शासन-व्यवस्था ७६
प्रचारिणी सभा की सम्मति में “रज्जुक राज्य के भूमिकर और प्रबंध के प्रधान अधिकारी होते थे | यह्द नाम या तो भूमि की पैमाइश करने की रण्जु ( रस्सी, जरीब ) उनका लक्षण होने से पड़ा है, या राज्य की डोर उनके हाथ में रहने के उपचार से पड़ा है। ये प्रदेसिकों से उच्चकोटि के होते थे |” श्री भंडारकर के अनुसार ““*ज्जुक न्यायाधीश ओर पैमाइश के प्रमुख कमंचारी थे |” बुल्ेर (39)/]87) भी रज्जुक का सम्बन्ध रज्जु (रस्सी) से मिला कर उन्हें कर और पैमाइश के. अधिकारी (07097) कहता है (80. [7505 प0प्र४७ 7 ७, 46564.) डाक्टर थौमस की भी राय है कि रज्जुक स्थानिक शासक के समेत पैमाइश तथा बन्दोबस्त और सिंचाई के आफिसर थे |"
. रज्जुक अथवा रज्जु का संभवतः “राज्ञा” शब्द से सानिध्य है। अतः “पाली” के अनुरूप इस शब्द का अर्थ महामात्य या महामात्र - हो सकता है। तथा वे अधिकारी जिनके पास जीवन ओर मृत्यु की शक्ति हो। अ्रथवा जिन्हें दश्डी को फाँसी एवं मुक्त करने दोनों की शक्ति प्राप्त दो ।?* चाइलड्स की यह सम्मति ही मेरी राय में ठोक जचती है। महावंश में भी राजा के लिए. “राजको” प्रयुक्त हुआ है | यह राजको शब्द रखज्जुक के संपकित है। अतः विदित होता है छि र्जुक उच्च पदाधिकारी थे; एवं वे उपशासकों के अनुरूप प्रांतीय शासकों में से थे, जेखा कि चतुथ-स्तंभ-लेख से सवथा स्पष्ट है, यह लेख लिखता है, “रज्जुक को मैंने सेकड़ों हज़ारों प्राणियों के ऊपर शासन के लिये नियत किया है। मेंने रज्जुक को शासन और दंड का पूरं अधिकार दे दिया है|?” इस वृत्त से सुप्रकाशित है कि रज्जुक हज़ारों प्राणियों पप शासन करते थे तथा उनकी शक्ति पूर्ण तथा स्वतंत्र थी, एवं उन्हें शासन और दंड का पूण अधिकार ग्राप्त था ।
इसके अतिरिक्त जनपद की पूणतया देखभाल सुख और दुःख को .. ब7.8,2.8., 494, 79० ०७ 07 #&80]728. ,(07]0078, 78, |, ैपी7७7४००१७ &७80१:8, 09, 4934,
जप सम ४44 ८ वप्ेे््िि्यषधप्व्प्प्््् ्य्डाः कर १५१३६ के हि ३५ ५ हक नम २४८ ३ न पड अकक ह कज पक ह हा न नमन व्यल, 73७. नयक ३ नल
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व्द्य० ग्शोक
चिंता एवं इहलोक ओर परलोक दोनों की जनपद के लोगों के हित सुव्यवस्था करना भी उन्हीं का कार्य था (४ स्तंभ-लेख ) | अत अकाशित है कि सम्राद् ओर उप-शासक (ए287०9४) की भाँति ही रू्जुक का काय था अर्थात् सम्राद और उपशासकों के अनुरूप ही रज्जुक का स्थान था । र्जुक के उच्च-पद का विश्लेषण आगे चल कर स्वयं चतुथ स्तम्भ- लेख ही कर देता है |.इस लेख में सम्राद कहते हैं, “जिस तरह कोई आदमी अपने बच्चे की किसी प्रवीण धाय को सोॉंप कर, यह विचार के निश्चित हो जाता है कि “प्रवीण धाय मेरे बच्चे का. अच्छी प्रकार पालन करेगी”---इसी भाँति मेंने रज्जुकों को प्रजा के पालन, सुख एवं हित के लिए नियुक्त किये हँ।? इंस कथन की उपमा से रज्जुक के कार्य तथा उच्च-शासन पद पर ययथेष्ट प्रकाश पड़ता है। अशोक का रज्जुक पर पूर्ण भरोसा था और इसीलिए रज्जुक पूर्णतया शासन- जा. व्यवहार अथवा नियम या दण्ड के व्यवहार करने में स्वतन्त्र था। धाय पक को अपना बच्चा सोंपकर जेसे कोई पिता निश्चिन्त दो जाता है, उसी तरह रज्जुक को प्रजा का शासन देकर सम्राट निश्चित हो जाते हैं | अतः सवशः प्रकाशित है कि निज कुमारों तथा भाइयों की भाँति ही सम्राद रज्जुक पर विश्वास रखते थे,अतः रज्जुक का स्थान उप-शासकों के सन्निकठ था, एवं ये प्रान्त के स्वतंत्र शासक थे | इसी स्तंभ-लेख में पुनः सम्राद कहते हैं---“मेंने रज्जुकों को ॥. स्वतंत्रता प्रदान की है। क्यों ! इसीलिए कि वे भय-रहित, सन्देह- | रहित, "ओर अ्राँति-रहित हो अपने काय में लगे अथवा न्याय और हे शासन कारय कर |? 2०, ..” पॉाँचवे' शिलालेख के अनुरूप न््याय-विधान और शासन की अंटियों को सुधारने का कायय अथवा अधिकार धम-महामात्र को दिया "गया था| किन्तु इस चढठुथ स्तंभ-लेख से प्रकाशित है कि धर्म-महामात्रों [ वह कार्य अब रुज्जुकों को दे दिया गया था। श्रतः स्पष्ट है कि
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' अशोक की शासन-व्यव स्था
र्जुकों को धीरे-धीरे उच्च अधिकार प्राप्त हों गये और अन्त में वे
यहाँ पर यह ध्यान रखना होगा कि चतुथ स्तंभ-लेख का अनु-
शासन शअ्रभिषिक्त होने के रद्ष्वे वर्ष का हैं, जब कि प्रथमतः '
“रज्जुक?---तृतीय शिलालेख में अभ्य दो कर्मचारियों श्रर्थात् युक्त तथा प्रादेशिक के साथ आया है ; किन्तु उस समय रज्जुकों को चत॒ुथ स्तंभ-लेख के अधिकार प्राप्त न थे। यह तृतीय स्तम्भ-लेख अ्रभिषेक के १२व वर्ष प्रकाशित हुआ था, अतः स्तंभ-लेख के अधिकार रज्जुक को तृतीय शिलालेख के १३ वे पश्चात् प्राप्त हुए थे, उससे प्रथम वे केवल साधारण राजकमचारी ही रहे होंगे, क्योंकि यदि पहले से ही उनको न्याय एवं दंड की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होती तो फिर से चतुथ-स्तंभ-लेख में उनके अधिकारों को निदश करने की कोई शआव-
श्यकता न थी | अ्रतः कह सकते हैं कि पूवनिर्दिष्ट विद्वानों ने रज्जुक
का जो अथ लगाया, उस समय उन्होंने चतुथ स्तंभ-लेख पर ध्यान न दिया। यदि चतुथ स्तम्भ-लेख की अवहेलना न की जाती तो सवश विदित हो जाता कि रज्जुक प्रांत के एक उत्तरदायी एवं स्वतंत्र शासक
“७ >७३
_ थे जिनका पद उप-शासक कुमारों के बाद स्थिर किया जाना चाहिये ।
हम ऊपर कह आये हैं कि पाँचव शिलालेख में जो अधिकार आदि धम-महामात्रों को प्राप्त थे, वे अब रज्जुक को ही दे दिये गये |
अतः ध्यान रहे, कि रज्जुक (युक्त और प्रादेतिक ) का कार्य केवल -
शासन संबंधी अ्रथवा ऐहिक सुख की लोगों के हित व्यवस्था करना ही न था, अपितु जेसा स्तम्म-लेख से स्पष्ट है, उन्हें लोगों के हित घर्म एवं पारलाकिक द्वित तथा सुख की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी | इसे हम अशोक का सुधार-काय कह सकते हूं क्योंकि उनसे पहले धर्म ओर स्वग का किसी ने कोई काय न किया ओर न करवाया | यही कारण है कि सम्राट के तृतीय-शिल[लेख में रज्जुक आदियों को शासन काय के अतिरिक्त धर्मानुशासन के अ्रथ दौरा करने का आदेश देते
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अशोक
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हैं | क्योंकि सम्राट का ध्येय ही प्रजा को हर प्रकार से' सुख पहुँचाना
था | अतः वे कहा करते थे, “नास्ति हि क्रमतर सत्रल्लोक हितेन” सब
लोकहित से वढ़कर ओर कोई काय अथवा कर्म नहीं है| सम्राद की
महानता थी कि वें चारु शासन के सुख-दान के अतिरिक्त पारलोकिक'
सुख का भी पूर्ण रूप से विधान करना चाहते थे | उनकी. पावन वाणी थी, “इ अर च प सुखयमि परत्र च स्वग्न॑ श्ररथेतु ति” | “कुछ प्राणियों को इहलोक में सुख पहुँचा सकू जिससे वे दूसरे लोक में स्वग़ प्राप्त कर सके |? अतः प्रकाशित है कि सम्राट के राजकर्मचारियों को स्वर्ग
- ग्रोर शासंन दोनों के सुख की प्रजा .के अथ व्यवस्था करनी द्वोती थी |
कलिंग के प्रथक शिलालेख में एक ओर राजकर्मचारी का नाम आया है। कलिंग-शिलालेख ( धोली ) लिखता है, “दिवानांप्रिय के वचनानुसार ( अथवा आदेश के अनुसार ) तोषाली के महासात्र और नगर-व्यवहारिकों को ऐसा आदेश दिया जाय (अथवा कहा जाय) |” नगर-व्यवह् रिक के श्री जबसवाल जी ने दो ठुकड़े किंये हैं, नगर आर व्यवहारिक, इसी पत्न का समथन करते हुए सत्यकेतु विद्यालंकार जी कहते हैं, “निःसंदेह नागरकों का काय- व्यवहार होने से बंन्धन रते थे श्रोर व्यवहारिकों. का काय शासन होने से वे दंड देते थे |” केन्तु हमें ऐसां कहना कुछ हास्यथास्पद हो प्रतीत होता है | इसका क्या अर्थ कि एक बन्धन करे ओर दूसरा दंड दे १.यह हमें उचित नहीं जान पड़ता। नगर-व्यवहारिक, महामात्र- कौटिल्य- के पुर-व्यवह् रिक के संपर्किन है ( कौटिल्य अ्रथशास्त्र-१,१२) | इस नगर-व्यवह्ा रिक को एक ही शब्द में लेना चाहिये | जोगडाः प्रज्ञापन
में 'महामाता नगल व्यवहाल? प्रयुक्त हुआ हैं इसी भाँति नगर के
अ्रधीश के लिये कौथिल्य ने नागरिक भहामात्र शब्द का प्रयोग किया है | (कौटिल्य अथंशास्त्र ४, २) |
इससे ज्ञात द्वोता हे कि नगर-व्यवहारिक के लिये महासात्र शब्द
अथवा उपाधि का प्रयोग किया जाता था। जिस प्रकार समाहर्तता
७.२8. ५६००४:८&-ढ 3 दी ७ आल 4-5३ ५ पे, 5 खत स्कास्केे लकी ल ० पक 9 “न, कक व 5 ६25 25 9०8 ८ कक आज 0 * मे प्लेन, २ उस पल ० अब व७2 का 2 दे
अशोक की शासन-व्यवस्था यरे
जनपद का अधीश था उसी भाँति नार का अधीश नागरिक (कोटिल्य अथशारत्र २५, २६) अथवा नगर-व्येवद्दारिक या महामात्र नगर-व्यवह्यारिक हुआ करेंता था | नगर का अ्रथ पुर! से है और “्यवहार! का अथ शासन या “व्यवस्था? से है| अतः सुप्रकाशितव है कि नगर-उ्यवह्यरिक_से तात्पयं उस रशाजकर्मचारी से है जिसके पास नगर के शासन का भार सौंपा गया हो, श्रर्थात् नगर का शासक नर्गरें-व्यवहारिक कहलाता था | द कलि्न-शिल्ञालेख प्रथम--(धोली) में सम्राट् कहते हैं---“'जो कुछ भी में ठीक या हितकर समझ, उसे मेरी कामना है कि कि प्रकार कार्य रूप में लाऊँ और भी प्रकार॑ पूरा कर सकूँ | इस अथ की सिद्धि के लिये में मुख्य उपाय शिक्षा देना अ्रथवा अ्रनुष्ठि समझता हूँ। तुम लोग (अ्रथवा नगर-व्यवद्दारिक) अनेकों सहसों . प्राणियों के ऊपर नियत _ हो, क्यों ? इसीलिये कि तुम सब मनुष्यों से पम करो या सब मनुष्यों के प्रेम को पा जाओ । सब मनुष्य मेरे पुत्र हैँ?? ... ...आदि | इस लेख में ' सम्राद अशोक ने राजा एवं शासक के कत्तव्य “का निर्देश किया है, सम्राट नगर-व्यवहारिक अथवा शासकों को जतलाना चाहते हैं कि वे स्मरण रखें कि वे “अ्रजा अथवा मेरे पुत्रों के साथ स्नेह का बर्ताव करे केयोंकि (मनु? कहता “स्थाचाम्नायपरों लोके वत्त त पिठृबन्नुषु?. (सातर्वाँ अध्याय ८०) ग्रेतः . सम्रेट के नगर-व्यवहारिकों को इस भाँति आदेश ए .. अनुशासन करने से मालूम होता है कि उन पर शासन-व्यवस्था का +.. पयशेष्ट उत्तरदायित्व था और इसी उत्तरदायित्व को पूण रूप से है निभाने-के हेतु ही सम्रादः उनको इस तरह निदश कराते हैं। इसके सिवा “बहु पान-साइसेसु आयुता?-(घोली-कलिड्ध शिलालेख) अ्रथात्
व्यवहार-सम्तता तथा दण्ड-सम्तता के संग करने पर रख्जुक का नगर-
व्यवहा रिक्षों के शासन-कार्य 'की भी देखभाल करनी पड़ती थी, जिससे फिर कभी न्याय-एवं-दण्डश्समता' भंग न हो सके .। « '
पड : ग्रशोक
जे जे 73 0 रच न हों ञ कप तुम बहुत स॑ ग्राणया के ऊपर शासन के ल्िसे आयुक्त हो”, से
काय यथेष्ट्तया विस्तृत था, तथा जनपद के शात्तकों के अनुरूप ही उनका शासन आदि काय में पद एवं हाथ था ।
इसके अनन्तर १रवें शिन्नालेख में तीन और राजकमसचारिय के नाम्त दिये गये हें; (१) घर्म-महासात्र, (२) स्त्रीध्यक्षमहासात्र ओर ब्रजभमि
सम्राद अशोक वोद्ध हुए थे, इन्होंने शाक्यमुनि के नियोगों को अपनाया था, इसीलिये कि भगवान गोतम कीं साति संसार के सुख-दःख का कारण समकना चाहते थे, एवं जिससे विश्व- शान्ति स्थापित हो सके, जिससे संसार के प्राणी सुख प्राप्त कर सके , उसी वस्तु को अशोक द्वढना चाहते थे, ओर वे अपने इस अन्वेषण में सफलीमृत भी हुए | उन्हें प्रकाशित हो गया कि सम्पूर्ण सुख और ढुःख के मूल में “धर्म ओर अधमे?” ही हैं, सनु सगवान् भी कहते हें--“अपमेप्रमव॑ चैव दुःखयोगं शरीरिणाम् | धर्माथयमव चेव सुख संयोगमक्षयम् ॥६४॥ अध्याय-दर्वाँ |” अर्थात् अधम से दुःख ओर घने से ब्रह्म का साज्षात्कार, होने से अक्षय ब्रह्मसुख मोक्ष को प्राप्ति होती है । अतः इसी “घ्त?! के हित सम्राट ने सब प्रकार से पराक्रम तथा उद्योग किया, क्योंकि वे सब के द्वित एवं सुख के अभिलाषी थे | सम्राद के अपने प्यारे शब्द थे, “सवभृतानां, अछुति च, सयमं च, समचेरां च, मादव॑ च??--- अर्थात् “मैं (अशोक) सब प्राणियों के हेतु, परित्राण, इन्द्रियजय, सनः- शान्ति एवं सुख का अमभिलाषी हूँ।” अतः इसी श्रथ के लिए चार शासन व्यवस्था समेत वे प्रजा में “घम” का भी प्रचार करने की युक्ति विचारने लगे, प्रथम्तः इस सुपथ का आलोक तृतीय शिलालेख में दीख पड़ता है। सम्राद कहते हैँ,“देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है कि अमभिषिक्त होने के १२४३4 व मेने इस प्रकार
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ग्रशाक को शासन-व्यवस्था व्यश्
आज्ञा दी कि मेरेविजित राज्य में युक्त, रज्जुक ओर प्रदिशिक प्रति ४५वें वर्ष, जिस प्रकार और शासन सम्बन्धी कार्य के लिए दौरा करते हैं, उसी तरह वारी-बारी से धर्म-प्रचार के लिए भी दौरा किया करें |!! किन्तु इसके अनन््तर, सम्राद ने “धर्म? की अमिद्वद्धि तथा प्रचार के लिए एक नवीन प्रकार के अधिकारी ही नियत कर दिये; सातवाँ स्तंभ-लेख. कहता है--“देवताओओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा कहता है कि विगत काल में राजाओं की यह इच्छा थी कि किस प्रकार धर्म की प्रजा में उन्नति हो। किन्तु लोग धर्म के अनुरूप न बढ़ सके | इस पर“ “मुझे यह विचार आया' * “कैसे लोगों को धरम पर आचरण कराया जा सकता है १: ““ “किस तरह धर्म के अनुरूप में उन्हें (लोगों अथवा प्रजा को) वना सकता हूँ ।
इसलिए मैंने विविध धर्मानुशासन प्रेषित किये हैं| “मेरे पुरुष “धर्म का उपदेश कर प्रचार करेगे | रज्जुकों को भी जो
सैकड़ों हज़ारों प्राणियों के लिये नियत हैं, मेंने आज्ञा दी है कि घममयुक्त
लोगों को इस प्रकार (धर्म के प्रति) उत्साहित करो। देवताओं का .
प्रिय कहता है कि यह ज्ञात करके (घ्म-प्रचार के हेतु), मेंने धर्मं-स्तंभ स्थापित किये, महामात्रों (घम-महामात्रों) की नियुक्ति की, तथा घम- लिपियाँ लिखवाई |!” अतः इस दत्त से सवथा स्पष्ट है. कि धम-प्रचार के हेतु ही प्रथमतः सम्राट अशोक ने घर्म-महामात्रों को नियत किया था | पांचवे शिलालेख में सम्राट स्वयं धर्म-मह्यामात्रों का वर्णन देते हुए उनके कार्य्योंका उल्लेख करते हैं। पांचवाँ शिलालेख कहता है, “विगत काल में धर्म-महासात्र न नियत किये जाते थे (अ्रथवा घर्म-महामात्र न थे) किन्तु अभिषिक्त होने के १३वें वष मैंने धर्म- मद्यासात्रों को नियत किया। वे सब सम्प्रदायों (थम्मों) में धर्म की स्थापना और उन्नति के लिये नियत हैं। वे घर्म-महामात्र लोगों के सुख और भलाई के लिये नियत हैं | वे यवन, कम्बोज, गांधार,
रष्ट्रिकों, पेठानिकों तथा पश्चिमी सीमाप्रान्त या अपरन्ता के लोगों
5 उयेलल# 5 ४ शा न न ज० च्ड ३: है & 6 ५ अं , “०5२१7: 2५५१८: ६ ४४२५ 7६८ ६ एमुककर०मान्यक तु पाला" ता एकन् यम कान हक 6८ 092 २6225 200 07% 2222200/2/ 2:27 22657 ४४३ 68686 62 कक,
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अशोक
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के लिये नियत हैं। वे भठ, दास, वेतनभोगी नौकरों, ब्राह्मण, साधु, गहस्थों,, असहायों और जीण बुड़्ढों की भल्लाई और सुख. के लिये नियत हैं | तथा धर्मानुप्रामिन् लोगों की रक्षा के लिये नियत हैं। वे बत्थन (केंद करने ) प्राणदण्ड देने, बाधाओं से रक्षा करने, स्वतंत्र करने (मुक्त करने) के लिये, जिसके बहुत से बाल-बच्चे हों, जो विप- त्तियों से अंसित हो या बुड़ढा:हो उनके हित के लिए नियत हैं । ये घर्म- महामात्र यहाँ तथा वाह्य दूरस्थ नगरों में मेरे तथा भाइयों और बहिनों के अंत:पुर ओर मेरे अन्य सम्बन्धियों के यहाँ सबंत्र नियत हैं | जो मेरे विजित प्रदेश में धर्म के-कार्य में लगे हैं, (धर्म युक्त सु) जो धर्मरत हैं, जो धर्म के अभिलाषो हैं; या धर्म में अधिष्ठित हैं, या दान के कम में रत हैं, (उन सबके हित) धर्म-महामात्र नियत हैं |” सम्राद के इस अनु- शासन से स्पष्ट हे कि धर्म-मह्मात्र उन्होंने ही प्रथम नियत किये थे तथा उनके कार का ज्षेत्र बहुत विस्तृत था एवं उनके अधिकार उप- शासक तथा सम्राद के अधिकारों के बराबर थे, उन्हें प्रत्येक मनुष्य, राजकीय परिवार, तथा प्रत्येक सम्प्रदाय की देखभाल और धर्म-हित की उचित व्यवस्था करनी पड़ती थी | साथ. ही सातवं स्तंभ-लेंख से विदित होता है कि उन्हें संध का काय भी करना: पड़ता था तथा इन धर्म-महामात्रों को, ब्राह्मण, आजिविक, निरम्रन्थ और गण्हस्थों की भी देखभाल करनी होती. थी | विदित द्वोता है कि दूसरे शिलालेख में दिये गये समाज हित कार्य के संपादन का भार भी इन्हीं महामात्रों प्र था। समासतः ये . धर्म-प्रचार के लिये नियत किये गये थे, वे शासन की क्र.रता तथा अन्याय एवं अत्याचारों की शान्ति के लिये नियत थे, उन्हें सम्राट और राजकीय परिवार के दान-कर्म श्रादि की व्यवस्था करनी पड़ती थी (सातवाँ स्तम्भ-लेख), तथा वे सववे मनुष्यों एवं संप्रदायों के हित के लिये नियत थे |. अतः . स्पष्ट है कि प्रजा का धर्म-युक्त एव. एकमात्र धर्म से
पालन करना सम्राद अशोक राजा का मुख्य कत्तव्य मानते थे । कह
छठ
ग्रशोक की शासन-व्यवस्था ८७
| , सकते हैं कि सम्राद का युग सत्ययुग था जब कि “ध्मणेव प्रजा: सर्वा-
द रज्न्ति परस्परम”? (महाभारत, राजधर्मानुशासन पव १४, ५६) | धर्म
| से ही परस्पर प्रजा की रक्षा की जाती थी | क्
द -. ख्री-अध्यक्ष-महासात्र--हुल्स ( लप2820 ) इन महामात्रों
को गणिक-अध्यक्ष-महासात्र कहता है, अर्थात् वे महामात्र जो राज-
कर्मचारियों के ऊपर अध्यक्ष नियत थे, किन्तु हुल्स के इस मत का.
समथन करने में हम अ्रसमथ हैं | हमें पाँचवें शिलालेख से सुप्रकाशित .
2 है कि राजकीय हरम अथवा अवरोध के हित घमहाम्मात्र पहले से
ही नियत थे | इन घ्महामात्रों को सम्राद् के निज अ्रवरोध एवं भाइयों ओर बहिनों के अवरोध तथा अन्य सम्बन्धियों के श्रवरोध में धर्म-कार्य करना होता था। (देखिए--पाँचवाँ शिलालेख तथा सातवाँ स्तंभ-लेख) । यह भी साथ ही स्मरण रखना चाहिये कि धर्म-मह्दमान्रों-
. की योजना अभी-शअ्रभी स्वयं सम्राद ने ही की थी, अतः हरम में
” अथवा खस््तियों में धर्म का काय सम्पादन करने वालों तथा अन्य सम्प्रदायों, मनुष्यों आदि में धर्म-काय करने वाले महामात्रों को पहले. एक ही नाम से संबोधित किया गया, किन्तु १२वें शिलालेख में आकर सम्राट का धर्म-महासात्र का भाव परिपक्व हुआ, ओर उन्होंने हरम में काय करने वाले एवं दरम के अथ नियत किये जाने वाले महामात्रों,
का ख्रीध्यक्ष-महामात्र नाम रख कर, उन्हें धर्म-महामात्रों से भिन्न कर. दिया । साथ द्वी इस नाम से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि हरम के समेत सम्राट प्रजा की समस्त स्त्रियों एवं संघ में रहने वाली भिन्नुणियों में भी धर्म-प्रचार तथा घर्म-कार्य के लिये -अलग से महा-. क् मात्र नियत करने का विचार कर रहे थे, अ्रत: इसी विचार को काय श रूप में परिणित कर उन्होंने स्त्रियों के धर्म-कार्य के हित धर्म-मद्दामात्रों | का एक अलग विभाग स्थापित किया, जिसका अध्यक्ष स्रीष्यक्ष-महा- मात्र कहलाने लगा। -
वचभूमिका या ब्रज॒भूमिका (शाहबाजगढ़ी, “ब्चम”--मानसेरा)--
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अशोक
प्रथम विद्वानों ने “ब्रच” को बच पढ़कर उसका अथ “मल” करके
यह निष्कर्ष निकाला कि सम्राट् “शौचागार” में भी प्रजा के आवेदन सुना करते थे, (अशोक की धर्म-लिपियाँ, काशी नागरी-पचारिणी- सभा ) किन्तु यह घारणा पीछे हास्यजनक प्रतीत हुईं | वस्तुतः ब्रज का अ्थ चरागाह है। कोटिल्य अथशाख्त्र में भी त्रज शब्द आया हे।
अथशास्त्र के अनुसार व्ज का अथ “गाय, भेंस, बकरी, भेड़, घोड़े, ऊँट आदि के फुण्ड अथवा पशुशाला से है ( कौटिल्य अर्थशास्त्र
पृष्ठ ६० ) और भूमिक यहाँ पर “पद” का निदेशक है, श्रतः
विदित द्ोता है कि व्रज-भूमिक राजकीय चरागाह ओर पशुओं के
अध्यक्ष थे | अनुमानतः पाँचव शिलालेख में वर्शित गोष्ठ--(जहाँ जाकर के कभी-कभी सम्राद अपने अवकाश काः समय व्यतीत किया करते थे)--ही राजकीय पशुशाला थे | कुछ विद्वानों की धारणा है कि वजमूमिक, जजमूमि अर्थात्ू--मथुरा और इन्दावन के निवासी थे। तथा सम्राद ने इनको तीथयात्रा और धर्म-प्रचार के हेतु नियत किया था, साथ ही ब्जमूमिक को पशुओं और वनिक- पथ की भी देख-रेख करना था | व्रजमूमिक को पशुओं की देख-रेख अथवा देखभाल करनी पड़ती थी, इसमें तो कतिप्रय संदेह नहीं है | शिलालेखों के अध्ययन करने से ज्ञात होगा कि सम्राद् का रक्षुण तथा पालन काय मनुष्यों तक ही सीमित न था, वे तो सर्वप्राणियों का--.च!।हे
मनुष्य चाहे पशु-मंगल चाहते थे और यही अशोक ने किया भी '
(देखिए--दितीय शिलालेख, ६वाँ शिल[लेख, सातर्वाँ स्तंभ-लेख, दूसरा
_ स्तंभलेख) | अतः सरलता के साथ अनुमान किया जा सकता है कि
जिस प्रकार धर्म-महामात्र रज्जुक प्रभ्षत धमचारी मनुष्यों के रक्ुण-कार्य तथा सुख की व्यवस्था करने के हेतु नियत किये गये थे, उसी प्रक्ौर
व्रजभूमिक को भी पशुओ्रों के रक्षण तथा सुख-विधान करने का कार्य सोंपा गया था | इससे स्पष्ट है कि वजभूमिक, धर्-महामात्र और
श्री भण्डारकर, अशोक, एंष्ठ ६२ ।
हि
अशोक की शासन-व्यवस्पा प्प६्
स्रीध्यक्षमहामात्र के अनुरूप ही धर्म के हित पशुओ्रों के अ्रध्यक्ष नियत
' किये गये थे | १२वं ,शिलालेख में सम्राट ने उनके नियत -किये जाने का
घ ९ छा ८65 आर कारण धम की सारबृद्धि दिया है। सम्राद के धम का अध्ययन करने
' से विदित हो जायगा कि सम्राट का धम प्रच्छुन्न था, वह सांप्रदायिक
नियमों से बद्ध न था, अपितु सब धर्मो' का सार ही उनका परम धर्म था एवं उनके धम का प्रमुख सिद्धांत--स्वलोक हित तथा अक्ञ॒र्ति सवभूतानां--था | अतः यदि हम यह अनुमान करें कि ब्जमूमिक धम-महामात्रों आदि की भाँति पशुश्रों कें हित तथा कल्याण के लिये नियत किये गये थे तो अप्रासंगिक न होगा । इससे सवंथा स्पष्ट है कि पशुश्रों के हित का काय, जेसे चिकित्सालय खोलना, ओषधि का यथोचित प्रबंध करना ( २ शिलालेख ) पेड़ तथा कुज्ञ लगवाना, पानी पीने के स्थान बनवाना आदि (सातवाँ स्तमं-लेख)--इन्हीं व्रजभूमिक को करना पड़ता था, और ये ही लोग इस काय के अ्रध्यक्षु- अथवा पशुओं के अध्यक्ष नियत किये गये थे |
'_>महासात्र-सेनाट का कहना है कि उच्च पदाधिकारियों के लिये ही “महामात्र” का प्रयोग किया जाता था | महामात्र की सेना”
ने व्याख्या की है--“महति मात्रा यस्य”” जिसका स्थान ऊँचा हो,
वह - महामात्र ( ॥.7९.8,5. ७9. 386, 9]4 )। ये महामात्र जेसा कि पूवनिर्दिष्ट हो चुका है--धम-प्रचार के लियेथे। इन महामात्रों में धम-महामात्र तथा सत्रीध्यक्ष-महामात्र का हम ऊपर उल्लेख कर आये हैं | इनके अतिरिक्त अंता अथवा सीमांत प्रदेशों में धम-काय करने के लिये एक और प्रकार के महामात्र नियत किये गये थे---इनका नाम अंत-महामात्र है। अन्ता का अथ अंत (!70570ठ067) अथवा सीमांत प्रदेशों से है। अतः अंत-महामात्र वे घधर्म-प्रचारक महामात्र
- थे जो अंता अर्थात् सीमांत ग्रदेशों में ध्म-कार्य किया करते थे |
किन्तु बुलेर की सम्मति में अंत-महामात्र सीमांत-रक्षुक (/४5706778 ०7709 |/57४८788) है। बहुत से विद्वान अन्त-महामात्र को
६०. .. अशॉक -
पाह्च रक्षा अर्थात्) सीमा के रक्षुकों से लिया जाता है| कोौटिल्य ये अंत-पाल (!]80प्7057ए-ठपठा08 ) साम्राज्य के द्वार की रक्षा करने के लिये नियत किये जाते थ। इन लोगों के पास गढ़ अथवा ' _क्िले भी हुआ करते थे (देखिए-कौटिल्य अथशाखत्र, २-४६ ) | किन्तु अशोक के शिलालेखों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा. जा सकता है कि अंन्त-महामात्रं, “सीमांत-रक्षक” न थे और उन्हें कोौटिल्य के अंत-पाल से मिलाना मूले करना है। अन्त-महामात्रों के स्थान अथवा काय का निरूपण करने से पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि सम्राद की सीमांत-प्रदेशों के प्रति क्या नीति थी। प्रथक कलिश्ड-शिलालेख द्वितीय--जौरुडा लिखता है-- “अविजित अन्तां (सीमांत निवासी) प्रश्ष कर सकते हैं कि राजा ( अथवा सम्राट अशोक ) का हमारे प्रति क्या. इच्छा ( अथवा / भाव ) है ? अंतों ( सीमांत लोगों या प्रदेशों ) के प्रति मेरी केवल यह इच्छा है कि वे मुझ से भय न खाये, किन्त मुझमें विश्वास रखें कि वे मेरे द्वारा दुःख के अलावा सुख ही पायेंगे | वे यह भी समझ रखे कि . राजा (अथवा अशोक) जो कुछ क्षमा किया जा सकता हँ--वह क्षमा करेगा | में अपने धर्म-नियमों से उन्हें घर सिखलाऊंँगा ( अथवा घर्म- पथ पर आचरण कराने का उद्योग करूगा) जिससे वे इहलोक और
परलोक दोनों को प्राप्त हो सके |?? इस वृत्त से स्पष्टत: प्रकाशित होता है कि सम्राट को सीसानन््त
प्रदेशों के प्रति क्या नीति थी | सम्राद अशोक निःसन्देह सीसान््त- वासियाँ के धर्मोत्कष्र के झतिशय अभिलाषी थे | सम्राद सीमान्त-वा सियों को आश्वासन देते हैं कि उनकी नीति अतिक्रम ( 6ठ07888707 ) की नहीं है किंतु स्नेह की है | अ्रतः इस स्नेह के वश में होकर पप्नाट चाहते हैँ कि वे सीमान्त-बासी दोनों लोकों (अर्थात् इह॒लोक और परलोक) में सुख का उपभोग करें | परन्तु यह कैसे हो सकता है--
| 5 |] के हे ह हक, नो 5 >.ु जे ६ दे प । कौंटिल्य के अन्त-पाल से मिलाते हैं जिसका अथ भी--(अंत < सीमा, | । । !
कैप जिक हे आप सका ॥ 3 व हरज मा सप- 2४ शु८रातप कब प नस, 672 75 #“+०८+»_722>प्प्८ 4७ 322: हद ४:33» 0 7005 ६7 इक % 70 02 ते? कप तकरार डा जतसतचाादगललखदाताा पफ्फत
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की ५ 5५ ले 75 कह कक: पक तल नि हो “पड कल अत न ई+ए ब अकबर या अंक फट
अशोक की शासन-व्यवस्था ६१
केवल इच्छा भर होने से कोई कार्य संसार में नहीं हो सकता , अतः: उसके लिये व्यवस्था तथा परिश्रम दोनों की बड़ी आवश्यकता है । अब यह सवाल रह जाता हैं कि श्रशोक ने इस हेतु क्या व्यवस्था की! इसका उत्तर सम्राद् के ही शब्दों में “घर्म” पर आचरण करने दिया जा सकता है | सम्राट ने स्वयं कहा है, “मैं अपने धर्म-नियमों से उन्हें धर्म-पथ पर आचरण कराने का उद्योग करूँगा |”? क् अतः अब हमें यह मालूम (विदित ) करना है कि सम्राट ने किस प्रकार उन्हें धर्मांचरण करना सिखलाया | प्रथम स्तंभ-लेख लिखता है, “देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा कहता है, अभिषिक्त होने के रढ्वे वष, मेंने यह घर्मेलिपि लिखाई | बिना धर्म-कामता, परीक्षा, अनुशा, भय, और बिना उत्साह के इहलोक और परलोक (स्वगंलोक) को पाना कठिन है। किन्तु निःसंदेह मेरे धर्मानुशासन के कारण, धर्मांचण तथा पधर्मानुष्ठि में दिन-दिन बढ़ती हुईं है, ओर होगी | तथा छोटे बड़े ओर मध्यम पद वाले मेर पुरुष भी धर्मानुशासन पर आचरण करेंगे, और लोगों ( श्रर्थात अपनी प्रजा ) से भी उन पर आचरण करवायेंगे । इसी प्रकार मेरे अन्त-महामान्र भी कार्य कर रहे हैं |? इस इत्त में अन्त-मद्दामात्रों का. उल्लेख आया है, जिससे मालूम होता है कि अन्त-सहामात्र, धर्म-कामता तथा धर्म पर आचरण कराने धर्मानुष्ठि तथा. घधर्म-प्रचार करने का काय कर रहेथे | इस स्तंभ-लेख से वस्तुतः बिलकुल भी संदेह नहीं. रह पाता कि अन्त- महामात्र, पुरुषों तथा धर्म-सद्यामात्रों के सहशः धर्म के लिये नहीं नियुक्त. थे | इस स्तंभ-लेख में पुरुषों ओर अन्त-महामात्र दोनों का साथ उल्लेख हुआ है--जब कि काय रूप में दोनों के कार्य की समा- नता अथवा सहशता भी भली प्रकार प्रकाशित की गई है-। अतः . सरलता के साथ कद्ा जा सकता हे कि द्वितीय शिल्लाल्षेख में उल्ले खित नीति के अनुसार अन्त-महामात्र विजित राज्य से बाहर अर्थात् सीमांत प्रदेशों में घमे-पचार काय आदि के लिये नियत किये गये थे,
हक, कह
६२ अशोक
क्योंकि.विजित राज्य में अथवा अशोक के निज साम्राज्य के अन्तगंत धर्म-प्रचार का काय “पुरुष” कर हो रहे थे |
अत: हमारी सम्मति में अन्त-पाल ओर अन्त-महामात्र को अलग अलग लेना चाहिये | वस्तुत: कह सकते हैं कि अन्त-महामात्र केवल सीमांत प्रदेशों में धर्म-प्रचारक महामात्र थे--जंसा कि प्रथम स्तंस- लेख से सबश;ः प्रकाशित होता है |
पुरुष---जेसा कि ऊपर कह चुके हैँ “पुरुष” का काये विजित राज्य अथवा साम्राज्य के अन्तभू त धर्म-प्रचार करना था। ये पुरुष तीन श्रेणियों में विभाजित थे--छोटे, बढ़े ओर मध्यम अथवा (१ ) उत्तम श्रेणीवाले, (२) मध्यम श्रेणीवाले और (३) निचली श्रेणीवाले ।
“पुरुष” के प्रति चतुथ स्तम्भ लेख में भी उल्लेख आया है | इस
चतुर्थ स्तम्म-लेख में सम्राद कहते हैं ---“रज्जुकों को मैंने सैकड़ों,
हज़ारों प्राणियों के ऊपर शासन के लिये नियत किया दे | क्यों ! इसीलिये कि रज्जुक सुनिश्चित और विश्वस्त होकर अपने कार्य में प्रवृत्त हों।... ... ... ...रज्जुक मेरी आआराज्ञा में तत्पर हैं।जों लोग सम्राद की इच्छा ओर अनुशासन को जानते हैं, वे पुरुषों की आजा का पालन करंगे | वे अर्थात् पुरुष जनपद के लोगों को उत्साह देकर र्जुकों को धर्म और राजा के प्रति कत्तव्य-निष्ठ होने में उत्साहित करंगे |? चतुथ स्तम्भलेख के कथन से स्पष्टतया विदित होता है कि “पुरुष”, रज्जुकों के काय का निःपंदेह निरीक्षण किया करता था तथा उनके काय में शियिल्ञता पाने पर उन्हें कार्य करने के लिये निदश भी
करता था | अतः कह्दा जा सकता है कि पुरुषों का स्थान रज्जुकों से
ऊपर था | किन्तु निःसंदेह रज्जुकों से उच्च स्थान रखनेवाले पुरुष उत्तम श्रेणी के होंगे |
परिषद्ू--तीसरे शिलालेख में “परिषद”? का प्रयोग किया गया है। तीसरा शिलालेख कहता है, “माता-पिता की सेवा करना स्त॒त्य है, मित्रों के प्रति उदारहस्त होना श्लाघनीय है, परिचित लोगों, संबंधियों,
3० 3-०---+३६.५- ०० 2 तट 2. ७ | छा 4 जीते ऑन्नआक + पकने औक-> ओला ॑ ह४7 बात सम इक 287 परदोग हल च अप बह अ कक
अशोक की शांसन-व्यवस्था डे
ब्राह्मणों ओर श्रमणों के प्रति दानशील होना प्रशंसित है | जीवों की हिंसा न करना प्रशंसनीय है, बहुत व्यय न करना और बहुत संचय न
करना अच्छा है। परिषद् भी युक्त को मेरे धर्मानुशासन के अर्थ और
असिप्राय के अनुसार जाँच करने की आज्ञा देगी [” इस शिलालेख में
. सम्राट् परिषद् को आदेश देते हैं कि वह युक्त आदि धर्म तथा शासन के कर्मचारियों को प्रजा में श्रहिंसा, सेवा-दान तथा अल्प व्यय
आर अल्प सशञ्बय आदि शुणों का प्रचार करने के हित सहायता दे तथा उनको इस घर्मानुशासन का प्रजा में प्रचार करने के लिये
आदेश किया करे | अतः प्रकाशित है कि इस प्रिषद् का कार्य राज-
कर्मचारियों के कार्य की देखभाल करना था तथा साथ ही राज्य के कमचारियों से सम्राट द्वारा प्रेषित हुई आज्ञाओं का पालन भी करना था । कौंटिल्य अथशास्त्र में भी परिषद् का वर्णन किया गया है| इस परिषद् का आशय मंत्री-परिषद् से है | इस परिषद् का कार्य था कि जो काम आरंभ न हुआ हो उसे आरंभ करे, जो कार्य आरंभ
हो चुका द्वो उसे पूरा करे, और जो पूरा किया जा चुका हो उसमें
सुधार काय करे तथा अनुशासनों का ( अन्य राज्य के कमचारियों से ) पूणता से पालन करावे, (अंथ-भाग प्रथम, प्रकरण १५ )।
इस विवरण से प्रकाशित है कि कोयिल्य की मंत्री-परिषद् की भाँति ही अशोक की परिषद् को कार्य करना पड़ता था, अतः कह सकते हैं कि अशोक का परिषद् से तात्पय मन्त्री-परिषद् है| ६४वें शिलालेख में भी परिषद का उल्लेख आया 'है, इस लेख में सम्राद् कहते हैं, “यदि कभी संयोगवश दान देने वाले या विज्ञप्ति सुनाने वाले अधिकारियों को जो कोई आज्ञा में मौखिक दूँ तथा अत्यन्त आव- श्यकता पड़ने पर जो अधिकार दिया जाय ( मुमसे ) यदि उस पर संदेह, तक-बितक; विमंश ( मतभेद या समीक्षा ) हो तो परिषद् बिना देर किये, कहीं भी सत्र सब समय पर मुके सूचित करे ( इस विषय की सूचना देवे ) |
ह्छः ... अशोक
इस बत्त से सवथा स्पष्ट है कि सम्राद जो मौखिक आज्ञायें तथा अधिकार दान, कमचारियों अथवा महामात्रों को देते थे उनको प्रथम परिषद् में विचारने के लिये रखा जाता था | यदि परिषद इन मौखिक आज्ञाओं को सम्राद द्वारा प्रेषित हुई समझती तो उन आशज्ाश्रों का पालन हो सकता था अन्यथा नहीं--श्रर्थात् परिषद् का महामात्रों पर किसी प्रकार का संदेह अथवा मत-भेद होने पर, आज्ञार्य सम्राट द्वारा निणय होने के उपरान्त ही कार्य में परिणत की जाती थीं:। अतः सवथा स्पष्ट है कि परिषद् महामात्र और सम्राट के मध्य
संयोजक का कार्य करती थी | तथा परिष्रद को अधिकार था कि संदेह होने पर सम्राट की मोखिक आज्ञाओ्रों को रोक कर, कारय रूप
में परिणित होने से पहले सम्राद द्वारा: निर्धारित करा लेवे। यह परिषद् काय-निर्वाहक सभा ( एिह82प्रए8 95ठए ) थी। -
श्री सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं कि परिषद् अथवा मंत्री-परिषद्, सम्राद् पर नियन्त्रण करती थी। इसके प्रमाण-स्वरूप अशोकावदान
से वे एक कहानी को उद्धृत करते हैं | संक्षेपत: कहानी का आशय
है कि सम्राट अशोक एक समय कुकटाराम विहार को धन-दान करना चाहते थे। पर वे दानन दे सके, “क्योंकि उस समय कुनाल का पुत्र अर्थात् अशोक का पौच्र सम्प्रति युवराज था । उससे आमात्यों ने कहा, “कुमार ! राजा अशोक को सदा थोड़े ही रहना .
है। उनका थोड़ा ही समय 'बाकी हैं। यह द्रव्य 'कुकटाराम विहार को भेजा जा रहा है। राजाओं की शक्ति कोष पर ही आश्रित है |
इसलिये मना कर दो ।” कुमार ने भाण्डागारिक को राजकोष से
न देने के लिये मना कर दिया । अतः सम्राद को इच्छानुसार धन दान करने के लिए न मिल सका |? क्या इस कहानी से सम्राद् के ऊपर मन्त्री-परिषद् का नियंत्रण होना. साबित होता है ? कहानी से स्पष्ट है कि मन्त्रियों नेअशोक के नाती को बहका कर, तथा समझा
कर उसी के द्वारा राजकोष से सम्राट अशोक को दान के अथ
ली कह या आधा लाल, है परेए-स्कल, 8, िटज रह <३6४४९ ग:३% ५ -े , . ४7 है; ' ५ ५ गसक साल वेल लिटल 5 क कप २०२०५ तक कर 555 पल पलपल 4०३5 + लि कुरान तप
अशोक की शावन-व्यवस्था ह्प्ः
धन लेने से रोका | अ्रतः प्रकाशित है कि सम्राद के दान-कार्य पर परिषद् का कोई नियंत्रणन था और यदि परिषद् को सप्राद पर नियंत्रण करने की शक्ति होती तो उसे युवराज सम्प्रति को बहकाने अथवा सम्मति देने को कया आवश्यकता थी ? क्यों न मन्त्री-परिषद' सम्राद के इस “दान” को व्यथ समझ कर स्वयं उसका विरोध
करती १ यदि परिषद् में समाद के समक्ष सीधे कोई विरोध उपस्थित
करने की शक्ति न थी, तो यह कहना बिलकुल निरथंक है कि परिषद् अथवा मन्त्री-परिषद् सम्राट पर नियन्त्रण करती रही होगी । बस्तुत परिषद् पर समाद का नियंत्रण था ओर यदि दवें शिलालेख के अनुसार परिषद् सम्राद की मौखिक आज्ञाओं पर हस्त्ेप कर सकती
तो वह किसके अधिकार से ! यह अधिकार स्वयं सम्राद का परिषद् को दिया हुआ था, तथा इस अधिकार का यह भी तात्पण नथा कि परिषद् सम्राद की आज्ञाओं पर इस्तक्षेप करे, किन्तु आंजशाओं के बिना हस्ताक्षर अथवा मौखिक होने के कारण यदि परिषद् को यह संन्देह हो कि महामात्रों को दी हुई थे आशज्ञायें सम्राट की ही प्रेषित की हैं अथवा नहीं, तो जाकर सम्राट् से ही उनकी सत्यता का निर्णय करा ले। बस इतना ही परिषद् को, अधिकार. था । किन्तु यदि विद्यालंकार जी की उद्धृत कथा कुछ समय के लिये सत्य मानी जाय तो उससे केबल यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अन्तिम वृद्धावस्था. के समय, सम्राद (अशोक) पदच्युत कर दिये गये थे तथा उनके अधिकार सम्राद के अपने ही पोच्र सम्प्रति
द्वारा अपहरण कर लिये गये थे | इसी कारण सम्राद ने निराशा और
घृणापूण शब्दों में कहा था--“ऐश्वय .धिगनाय?--ऐश्वर्य के लिए घिकार | इसके अतिरिक्त अशोकावदान यद्द भी लिखता हँ कि. सम्राट ने जब आमात्यों और पोत्र को बुलाकर पूछा कि “इस समय राज्य का कौन स्वामी है !? तो मन्त्रियों ने कहा, “आप ही स्वामी हैं? इस पर कथा लिखती है कि अशोक ने आँसू बहाते हुए कहा
पर (
अशोक
ल्रो)
के-- मुझसे तो राज्य [छीन गया है।” मालूम होता है अशोका- बदान की कथा को प्रमाण रूप म॑ देते हुए भी विद्यालंकार जी कथा
के आशय की अवहेला कर गये, अन्यथा अशोक के कथन को
उन्हें अधिक प्रमाणित लेना चाहिये था। निःतंदेह पिता आदि से राज्य का अपहरण किया जाना अशोक के समय कोई नई वात न थी | सम्प्रति से पहले अजातशत्र ने भी अपने पिता को पदच्युत किया था तथा इस प्रकार के सेकड़ों उदाहरण इतिहास में प्रवलता के साथ पाये जाते हैं । कारागार में हॉफते हुए शाहजरहाँ की: पुकार- “या अल्लाह तेरी रजा |? आज भी ताजमहल की शुष्क निश्वास मे प्रतिध्वनित हो रही है।
दोरा या निरीक्षण-कार्य--पम्राट अशोक का साम्राज्य अत्यन्त
विस्तृत था, और इस विस्तृत साम्राज्य की अशोक नित्य
देख-रेख करना चाहते थे। इस देख-रेख अथवा निरीक्षण करने के दो आशय थे-प्रथम यह कि प्रजा को सब जगह पुशासन मिल रहा है या नहीं, क्योंकि अशोक एक उत्तरदायी सम्राद् थे, वें अपनी प्रजा को बच्चों के समान प्यार करते थे, ओर अपने को प्रजा का ऋणी समझते थे, अतः सुन्दर, न्याययुत्त शासन-व्यवस्था का सम्पादन कर वे अपने को उक्रण करना चाहते थे | अतः शासन का निरीक्षण करने के लिए सम्राद ने महामात्रों को नियत किया, ध्रथक कल्लिज्ञ शिज्षालेख प्रथम में अशोक कहता है “नगर-व्यवह्यरिक तथा मसद्दासात्र नित्य इस काय का उपक्रम करते रहें कि विना किसी कारण के मनुष्यों को बन्धन में न रखा जाय, न उन्हें कष्ट दिया जाय और प्रत्येक पाँचवें .बर्ष (मैं) एक महामात्र को . नियत करूगा, जो काय करने में नतों कठोर होगा और नक्रर होगा, किन्तु जो घधीरता से काय करेगा, क्यों ! इसलिये कि शासन- कत्तांगण इस बात का विचार रख मेरी आज्ञा अथवा अनुष्ठि के अनुसार काय कर रहे हैं; या नहीं | उज्जेन से भी ये कुमार-शासक
कथा-४नत कमर तन
अशोक की शासन-व्यवस्था ६७
इसी अथ के.लिये ऐसे ही अधिकारियों के . एक वर्ग को- नियत करे ओर तीन साल से अधिक न. व्यतीत होने दे | . ऐसा ही तक्षशिला में किया जाय | | न | जब ये भहामात्र दोरे पर जाये, तब वे अपने कर्तव्य
को निभाते हुए, इस बात का भी निश्चय करें या* देखभाल रखें कि शांसकवग सम्राट के अनुशासन का पालन कर रहे हैं|? .
इस शिलालेख से स्पष्ट; प्रकाशित है कि प्रत्येक पाँचवें वर्ष महा- : मात्र सम्राट द्वारा दौरे पर इसीलिये भेजे जाते थे कि वे शासकवर्ग - के शासन का निरीक्षण किया करें और देखें कि ये शासकगण ठीक तरह से सम्रोट् के आज्ञानुसार कार्य कर रहे हैं या नहीं | अतः प्रकाशित है कि शासकवर्ग अथवा राजकर्मचारियों के शासन-कार्य का निरीक्षण . करने के लिये ही सम्राद ने “दौरे” की प्रथा प्रचलित की |/सम्राट,_ शासनकर्त्ताश्रों के निजी अत्याचारों से भत्नी प्रकार परिचित-थे, इसलिये उन्हें नित्य शासकों पर संदेह बना रहता था | सम्राद का सुशासन के प्रति इतना अधिक विचार था क्योंकि सम्राद स्वयं कहते हैं कि---.“इस कत्तव्य (अथांतू सुशासन) के संपादन से दो लाभ हैं, अर्थात् स्वग की. प्राप्ति और राज-कत्तव्य से उऋ णता पा जाना |”
इसी तरह शासन का निरीक्षण करने के लिये उज्जेन, तत्नशिलाः आदि के कुमार-शासकों को .भी प्रति तीसरे वष महामात्रों को “दौरे?” पर भेजना पड़ता था ।
सारनाथ स्तंभ-लेख में भी सम्राद ने स्थानिक महामात्रों को अपने प्रान्त के अंतर्गत “दौरा? करने का अनुशासन दिया है। .. शांसन का निरीक्षण करने के अलावा धर्म-प्रचार के हेतु भी “दौरा” हुआ करता था। क्योंकि सम्राट प्रजा को ऐहिक सुख के साथ स्वगिक सुख का भी उपभोग करवाना चाहते थे | के |
: प्रंथौ--कंलिंग शिलालेख द्वितीय (जोगुडा) में सम्राद कहते हैं “जिस प्रकार मेरी अमभिलाषा है कि भेरे पुत्र इहलोक और परलोक दोनों हि
ल्प्द द .. अशोक .
में सुखी हों, ऐसे ही मैं सर्व-मनुष्यों के प्रति अमिलाषा करता हूँ ॥”? अतः सुशासन द्वारा ऐहिक सुख का प्रबन्ध कर, अब सम्राट को प्रजा के स्वर्गीय सुख की चिन्ता दो आई, अतः इसी स्वर्गीय सुख का विधान करने के हेतु सम्राट् ने धर्म-प्रचार के लिये “दौरा” प्रथा क्वायम की | : तीसरा शिल्लांलेख कहता है, “मेरे विजित राज्य में युक्त, रज्जुक ओर ग्रादेतिक प्रति पाँचवें वर्ष जिस प्रकार और शासन संबंधी काये ' के लिये दौरा करते-हैं उसीः तरह बारी-बारी से धर्म-प्रचार के लिये भी दौरा किया करें |? अतः स्पष्ट है कि युक्त, रज्जुक तथा प्रादेसिक आदि को शासन का निरीक्षण करने के सहित घर्म-प्रचार के हेतु भी “दोरे?? पर जाना पड़ता था। संक्षेपत:ः सुशासन तथा धर्म के संस्थापन के हेतु ह्वी दौरा-प्रथा प्रचलित की गई थीं । । पेतकीय शासनं--महाभारत (शान्ति पव॑ राजघर्म प्रकरण घ६) कहता है, “राजा का प्रजा से वही सम्बन्ध है जेंसा माँ का अपने बच्चों रे, अतः मां का तरह राजा को प्रजा के हित व्यक्तिगत स्वार्थ का बलिदान करना चाहिये |” राजा के पैतृक-गुणों का महाभारत कौटिल्य, मनु आदि ने स्वच्छंदता-पूवक अभिनन्दन किया है। सम्राट अशोक / का चरित्र भी इन्हीं पैतृक-गुणों से भरा हुआ था। सम्राद अशोक भी 4 सारी प्रजा को अपने बच्चों के समान प्यार किया करते थे तथा नित्य अपनी प्रजा के ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिये पराक्रम में लगे रहते थे, (देखिए प्रथक कलिंग शिलालेख, प्रथम-द्वितीय---संव मुनीषि मि प्रजा )। सम्राद का प्रजा के प्रति यह स्नेह प्रशंसनीय है, उनके शब्द ह--“कणय्वय मते हि में सर्वलोक हिले” (मानसेरा) अर्थात् सब लोक का-कल्याण मेरा कर्त्तव्य है | प्रजा के प्रति उनकी निरंतर दो भावनाएं रही हैं---“हिंद व कानि सुखामीय पलत च स्वगं आल- .. धवयितु? अथांत् प्रजा को इस लोक में शासन द्वारा सुख पहुँचाऊ, जिससे वे परलोक में भी स्वर्ग प्रात्त कर पसक--(कालसी दवाँ शिलालेख) | क् अतः उवथा प्रकाशित है कि इन्हीं पैतुक भावनों से परिपूर्ण सम्राट
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का शासन था। इस पैतृक-शासन का विधान करने के लिये सम्राट उपशासकों को भी. आदेश किया करते थे। सम्राद प्रजा तथा सवलोक का कल्याण करने के लिये निरंतर- इसी पैतृक भावना से ;१्रित द्वोकर पराक्रम किया करते थे--यश्चपि उन्हें यह भली भांति मालूम था. कि “कस्याणं द्रकुले? अर्थात् कल्याण करना कठिन है. । यही कारण है कि सम्राद निरंतर राजकमचारियों को इसके '.. लिये उत्साहित किया करते थे | इस कल्याण के हेतु सम्राद अपक्षपात ; तथा न्याय-समता को अत्यन्त आवश्यक समझते ये । एक समय सम्राद .. को जब यह मालूम हुआ कि तोधाली के व्यवद्यारिकों ने निरपराध प्रजा .. को अन्याय से पीड़ित किया है तो सम्राद ने उन्हें अच्छी तरह दर्ड . देकर रोष भरे शब्दों में मिड़कते हुए कहा--“ुमने मेरे शब्दों का द तात्यय नहीं समझ पाया, सारी प्रज्ञा मेरे निजः बालक हैं और उनके कल्याण की शुमेच्छा हो मेरी एक अभिलाबा है। तुम अपने को ईर्ष्या |. द्वष, आलस्य और असहिष्णुता से बचाओ तथा प्रसक्ति, प्रशांति क्षमा- शौीलता आदि गुण ग्रहण करो !?! क्योंकि सम्राद कहते है---“शुरुमतं वो देवनं प्रियत यो पि चर अपकरेयति छुमितिवियमते ।” देवताओं के प्रिय का गुरुमत है कि जो श्रपकार भी करे उसे ज्ञमा कर दिया जाय | अतः सम्राद ने नगर-व्यवहारिकों को आदेश देते हुए कहा कि अपने शासन का कत्तव्य “पालन न करने से महत् अपयश होता है.।...... इसको न स्वग सिद्धि होती है ओर न राजकीय कृपा मिलती है ।” और पालन | - करने से “स्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा राज कक्तव्य से उऋणता .... मिलती है।” निःसन्देह अशोक का राज्य ऐतिहासिक रामराज्य था । तथा पूव-निर्दिष्ट ( धर्म ) महामात्रों की प्रथम नियुक्ति ही सम्रांद का प्रथम सुधार काय था । द्वितीय उुधारणा सम्राद के अपने ही शब्दों में देखिये--“बहुत काल व्यतीत हुआ कि प्रत्येक समय राज-कार्य और राज़ा से प्रजा की विज्ञप्ति नहीं होती थीं। इसलिये मैंने ऐसा प्रबन्ध किया जिससे प्रत्येक
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१००७ ,. अशोक:
समय, चाहे में खाता हूँ, चाहे अंतःपुर में होऊँ, चाहे महल में होऊँ, चाहे यात्रा में रहूँ, चाहे वाठिका में श्रमण करता होऊँ, सवत्र कहीं भी प्रतिवेदक मुझे प्रजा के काय की सूचना देवे, आवेदन कर |” फलतः प्रतिवेदक का नियत किया जाना तथा “प्रत्येक समय प्रजा के काय के लिये सम्राद ( अशोक ) का उद्यत रहना ही सम्राट का दूसरा